Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
Administrator

आत्महत्या

 

 

देखो कैसे आहिस्ता से
वह धमनियों पर खीच रहा है
असंतुष्टि की धारदार लकीरें ।
आह ! कितना लाल है ..इसका रक्त ...
वह रुक गया ...कोमल मन घबराता है ,
रक्तपात से ।।
देखो वो चढ़ गया ,पाँचवी मंजिल पर ,
उसे जीना है ...
जीवन- मृत्यु के बीच की क्षणिक खुशियों में ,
उसे पूर्ण करना है ....
आकाश में उड़ने का ख़्वाब ।।
वह कूदने को है ....अरे ! ये क्या ?
वह पीछे मुड़ गया ...
शायद वह भयभीत है
मृत्यु से ,
नहीं - नहीं ...देखो उसे
वह आठवी मंजिल पर खड़ा है ,
वह तो आशंकित था
जीवन से .....
कही वह कायर तो नहीं ?
नहीं,वह कायर तो नहीं हो सकता ,
क्या "अहम् "को मारना इतना सहज है ?
कितना अवसाद ,निराशा ,एकाकीपन है इसमें,
इसके आँसुओं को देखो, कितने कालेे है ..
बिल्कुल अंधेरे जैसे ।
रात गुज़रने को है ,उसे बस मरना है ..
वह कुछ पी रहा है रुको....रुको ...,रोको उसे
अरे ! वह तो अशक्त होकर गिर गया ,
जैसे शिकस्त होकर गिरता है सैनिक ।
हाय ! ये तूने क्या किया...
अब तुम्हे मिलेंगी उपाधि
कायर की उपाधि ....
मैंने जानता हूँ तुम्हे ,तुम कायर नहीं हो ...
सुबह की पहली किरण
स्पर्श कर रही उसका माथा ,
घूमने लगी है आँखो की पुतलियाँ ,
सजल नेत्रो से वह घूर रहा है
सूरज को ...
लौट आयी है उसकी प्रदीप्त चेतना
बनकर जिजीविषा....
वह उठ गया ,देखो ...वह उठ गया
जैसे योद्धा उठता है रणभूमि में ,
वह जीत गया मृत्यु से ,
पराजित हो गयी
उसकी कुंठा ,
अब वह तैयार है मरने को
करने को हत्या ,
एक
परार्थवादी आत्महत्या ।।

 

 

 

--- अम्बुज सिंह

Powered by Froala Editor

LEAVE A REPLY
हर उत्सव के अवसर पर उपयुक्त रचनाएँ