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नल की कलकलाती आवाज़
जगाती उन्नीदी सुबह को...
उदयाचल पर चमकता सूरज ...
खेतो में जमते अनिरुद्ध पाँव
बेतुके हाथ ,छिड़कते बीज ...
जिन्हें सीचने को आतुर
माथे से टपकतीं कुछ गोल बूदे ...
दूर ...पगडंडियों से नहारी लाती प्रिया
को देख शीतल होता तन-मन ।।
घर की चार दीवारी
जो लिपी है शर्म से ,लाज्ज़ा से ..
और मुन्नी के नन्हे लाल
अल्तेदार हाथो से ...
जहाँ कड़क दम्भित वाणी का ...
उत्तर देता घूघंट के अन्दर से एक प्रश्न चिन्ह ।।
दूर कही गूँजता इकाई-दहाई का तालमेल
हर अवरोहण माँ को देता सन्देश -
बस छुट्टी होने को है ..
पकते गुड़ की मिठास लिए ढलने को तैयार
ये शाम ।।
नीम के नीचे अलाव ,जिसे जलाती ...
बुज़र्गो के तजुर्बे की लकड़ी ...
और अम्मा के फूकों के जादुई सामंजस्य से
जलता-बुझता ये मिट्टी का चूल्हा ....।।
कुत्तो का रुदन ,निर्वात की लोरिया ...
सुन ,एक नई सुबह का शौदा कर
सोता ये गाँव ...
जहाँ की कच्ची सड़को पर रेंगता है
समय का पहिया ।।
------अम्बुज सिंह
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