रात के तीसरे पहर की नीरवता को तोड़़ती है एक काँपती फूँक.....
गठीले तन का नाटा नेपाली निकल पड़ा है ...
वीरान सोती सड़को पर
पकड़ने डर का प्रतिबिंब ......
थामे अनगिनत विश्वासो का दायित्व
हज़ारों आशंकाओ का पूर्वाभास और एक
सूखी टहनी का साहस ....
जिसके साथी हैं...
नीम की शाख पर सोया वो बूढ़ा बदनुमा बन्दर
जो अक्सर अलसाई नज़रो से उसे झांक लेता है
छज्जे वाला वह नन्हा कबूतर और
ज़लती बीड़ी का वह रूहानी कश .......
जिनके धुओ पर वह लिखता है
भविष्य के कुछ क्षणिक ख्व़ाब ....
वह संदेह भरी नज़रो से मुझे घूरता है
मैं भी देखता हुँ उसमे प्रेमचंद्र के हल्कू को ...
जिसने बेचीं है पूस की ठिठुरती राते
बित्ते भर रोटी की खातिर .....
नज़रे मिलते ही हम दोने मुस्कुरा देते है
शायद वह पहचान गया मेरे अन्दर के चोर को ...और मैं उसकी प्रतिबद्धता को ....
ऊपर बरांडे से दूर जाते मैं उसे देखता रहता हुँ .
धीरे धीरे वह धूमिल हो जाता है और
अचानक ओझल ,
छोड़ जाता है ...केवल लाठी की थाप और ..सीटी की गूँज ...
नींद की चाह में ज्यो ही बिस्तर की ओर मुड़ता हुँ ...
दूर से आती एक प्रतिध्वनि कानो में बोल जाती है -
जागते रहो ...जागते रहो .....
----- अम्बुज सिंह
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