बतौर दर्शक बचपन से ही फिल्मो को लेकर मैं बहुत चूजी किस्म का रहा हुँ।जब भी पुराने दोस्तों से मिलना होता है,अक्सर हम किसी शांत सिंगल स्क्रीन सिनेमा में पहुच जाते है जहा बड़ी एकाग्रता से दो,ढाई घंटे की पिक्चर देखते है।सिंगल स्क्रीन सिनेमाहाल में जाने का दो कारण है एक तो हम अपनी जेब से बड़ी मुद्रा को खर्च होने से बचा लेते है दूसरा इनके विचित्र नाम और इनकी देशी बॉलीवुड संरचना अक्सर मुझे लुभाती है ।एक बड़ी सी तोंददार ईमारत (जिसकी तोंद पीछे होती है ),सामने की दो लम्बी सीढ़ीयों पर बैठ इंतेज़ार का कश खीचते कुछ लफंगे टाईप के लड़के जिनके ऊपर की दीवार पर एक आयातकार फ्रेम में बड़ा सा पोस्टर,सामने खड़ी साईकिले और कुछ मोटरसाईकिले कार यहाँ की दुर्लभ प्राणियों में एक होती है।हालांकि मध्यवर्गी परिवारो की मानसिकता के अनुसार आज भी सिनेमाहाल में पिक्चर देखने को एक बुरी लत के तौर पर देखा जाता है पर हाँ...., सिनेमा देखने से सबसे अच्छी बात ये है की इससे हमारे अन्दर किसी चीज को सकारात्मक और नकारात्मक पहलुओ से देखने का नजरिया विकसित होता है और साथ ही ये हमारे अन्दर महत्वाकांक्षाओ को जन्म देती है ।जिससे
हमारे सोच का दायरा भी बढ़ता है और प्रत्येक दर्शक खुद को पर्दे पर नायक/नायिका के रूप में देखता है ।
खैर अब फिल्म पर आते है --
नीरजा जो की एक ईमानदार -निर्भीक मॉडल और एयर होस्टेज है। साथ ही राजेश खन्ना की दीवानी भी है जिसने अपने डरावने अतीत से लड़ने के लिए काका की मस्त मिज़ाजी को अपनाया है और अपनी ड्यूटी को ईमानदारी से निभाते हुए बन्दूक और बम से लैस आतंकियों का डट कर सामना किया है ।
विषम परिस्थितियों में छोटी छोटी बाते ही इंसान को हौसला देती है ,नीरजा ने भी उस विपरीत परिस्थितयों में अपने पिता द्वारा बताई गयी 3 बातो का आलंबन लिया जिससे वह लगातार दृढ़ होती गयी।नीरजा जो की दांपत्य जीवन में हार गयी थी ,वही उसके आत्मबल ,हौसले और सूझबूझ ने उसे हीरो बना दिया। 23 साल की उम्र में वीरगति को प्राप्त होने वाली नीरजा अंततः काका के इस फ़िल्मी संवाद की राह पर चलती है की "जिंदगी बड़ी होनी चाहिये लम्बी नहीं ,बाबू मोशाय !
हम सब में कही न कही एक नीरजा है ..जो अपने डरावने अतीत से लड़ सकती है।मुश्किल से मुश्किल परिस्थितियों का सामना कर उसे पराजित कर सकती है ,बस हमें अपने जीवन में उन छोटी -छोटी बातो को ढूँढना है जो हमारे लिए प्रेरणा बने ,जिससे हमें सामर्थ्य मिले ।
फिल्म के बीच में कइयो बार आपको रोना आयेगा।सिनेमाहाल की सीट पर बैठ आप भी फ्लाइट में बैठे एक यात्री की भांति उस भयानक क्षण को जीयेंगे,विमान के अन्दर के तनाव को महसूस करेंगे।सोनम कपूर ने नीरजा के किरदार को भरपूर जीया है ,अपने चुलबुलेपन और हँसमुख किरदार से पूरी तरह निकलने का सफल रही है।इसे उनकी सबसे बेहतरीन फिल्म कहना भी अतिशयोक्ति नहीं है।
"जज़्बा"और "नीरजा"दोनों फिल्मो में सबाना आज़मी ने अपने सशक्त अभिनय से मुझे अत्यधिक प्रभावित किया ,फिल्म में माँ के अभिनय में किया गया व्याकुलता और धौर्य का सामंजस्य देखकर आप को यह समझने में तनिक भी कठिनाई नहीं होगी की इतने अधिक फिल्म फेयर अवार्ड इन्हें क्यों मिले। सो इन पर किसी तरह की टिप्पणी करना इनके अभिनय के साथ अन्याय करना होगा ।कुल मिला कर यह एक सफल और समृद्ध बायोपिक है ।
फिल्म का अंतिम 5 मिनट पूरी तरह से सबाना आज़मी का है या यू कहे की पूरी फिल्म का सबसे भावनात्मक और मजबूत पक्ष है ,यहीं आप नीरजा के अदम्य साहस व कर्तव्यपरायणता के आगे नतमस्तक हो जायेंगे और आपके हाथ खुद ब खुद उसकी सलामी में उठ जायेंगे ...हो सकता है सिनेमा से जाते जाते आपके आँखो से कुछ बूदें भी आजाद होने की चेष्टा करे पर आपको उन्हें रोकना ही पड़ेगा क्योंकि की नीरजा के ये आखिरी शब्द बार-बार आपके दिल पर वार करेंगे .."पुष्पा .....आई हेट टीयर्स ".
---- अम्बुज सिंह
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