सोचता हुँ कभी शून्य बनकर
थाम लू सबसे धारदार तलवार ....
बन जाऊ बूचड़ के समान
सबसे क्रूर.. सबसे निर्मम ....
ताकि मुझमे भी जन्मे एक जिघांसा
काट कर शीश राम और रहीम का
संचित कर लू रक्त....
किसी याचक के कटोरे में ।
ताकि दिख सके ...
कितनी गर्म होती है
भूख की रोटी ....
इस रक्तरंजित कटोरे में मिला कर खून
गाय और बकरियों का ..
सींच दू किसी द्रौपदी के केशुओ को ।
ताकि दिख सके ..
प्रतिशोध का सामर्थ्य ....
रक्त में सने केशुओ की कूंची से
रंग डालू सभी मजहबी दीवारे ।
ताकि देख सकू ...
कितना गाढ़ा होता है
किसी कौम का धर्म ....
ढूढ़ कर किसी विधर्मी की गर्दन...
खीच दू मानवता की इक लकीर ।
ताकि दिखा सकू .....
साँसो को कितना प्यारा होता है ...रक्त !
------- अम्बुज सिंह
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