बचपन से ही कहानियों,कविताओं में रूचि थी ,
साहित्य कि ये अंतहीन और दिलचस्प दुनियाँ हमेशा ही लुभाती थी ! हमेशा ही दिमाग में पनपती रचनायें कागज पर उकरने को आतुर रहती पर कलम ना जाने क्यो रुक सी जाती... दिसम्बर 2013 कि एक रात नेत्रों ने अपनी अजस्र अश्रु धाराओ से कलम को ऐसा आक्रोशित किया कि वह लिखने को मजबूर हो गयी ! इसे मैंने काव्य का रूप दिया -
शब्द मजबूर थे कुछ भी व्यक्त न करने को, पर दिल के कोने मेँ दबी एक चिँगारी मजबूर थी ज्वालामुखी बनने को !
खुद ही थम गई कलम हाथोँ से कुछ लिखने को ,फफक पडे शब्द मानो आशुओँ को पढने को !
लिख डाली पहली कविता एक जन संदेश पर,
अभी तक जो लिखा करता था बस गालिब के शेर पर!
मुझे न देना जन्म ऐ माता हर पल ये कहती रहूगीँ, भ्रूणहत्या अगर जुर्म है तो ये जुर्म सहती रहूगीँ ।।
ना पालो माँ तुम सपना बेटी को जन्म देने का, क्या तू सह पायेगी दुःख फिर इस बेटी को खोने का ?
मैँ तो हुँ अकिँचन एक कन्या ससुराल मेँ जाऊँगी, दहेज प्रलोभन के कारण मैँ वहा भी मारी जाऊँगी ।।
डर लगता है माँ मुझको इस रिपु संसार मेँ,
करवा दो मेरा गर्भपात माँ ममता के अंधकार मेँ ।।
जब रातो के सन्ऩाटो मेँ मैँ डरी सहमी सी घर आऊँगी,
कुछ हैवानो कि हैवानी से खुद को बचा न पाऊँगी ।।
पूरी रात न घर आने पर माँ तू व्याकुल होती जायेगी,
खबर न कोई मिलने पर तू मन हि मन घबराये गी ।।
सुबह-सुबह अखबार में मेरी रेप खबर जब आयेगी, अधमरी सी माँ तू मेरी खुद पर ही
पछताएँगी...-- "काश न देती जन्म तुझे तो एक जान बच जाती ,याद तो तेरी न सताती चाहे भ्रूण हत्यारी कहलाती "।।
कभी _"दामिनी" _की भाँति मैँ तडप-तडप मर जाऊगी ,
कभी अबोध _"गुडिया"_ बन मैँ फिर से जानी जाऊँगी ।।
जब देश खडा शोक सभा मेँ मेरे लिए लड़ता होगा, उस पल भी कही एक बेटी के जीवन का घड़ा भरता होगा ।।
क्या कहूँ पुरुषप्रधान समाज हि अपराधी हैँ? या कह दू एक सत्य ये कि ,यह शुरु देश कि बर्बादी है ।
कब तक मैँ जगत के जुर्म को सहती,
रहूँगी कब तक इस नरक कलेश की ज्वाला मेँ दहकती रहूँगी ।।
मुझे न देना जन्म ऐ माता, हर पल ये कहती रहूगीँ, भ्रूणहत्या अगर जुर्म है तो, ये जुर्म सहती रहूगी ।।
-अम्बुज सिँह
Powered by Froala Editor
LEAVE A REPLY