सैकडो अनजान चेहरे....सब लगभग एक से...मुँख पर मासूमीयत और भोलेपन रूपी अलंकारो कि श्रृंगारता...। व्याकुलता और नेत्रनीर कि चमक से उत्तेजित आँखेँ....,मानो विधु तमस मेँ उजाला फैला रहा हो ।अजीब इत्तेफाक.....हर इन आँखोँ मेँ सिर्फ एक ही लक्ष्य....।ये लक्ष्य किसी कलिँग पर फतह करने का नहीँ....बस और बस किसी अपनो को ढूढने का ।ये थे 2 से 3 साल के मृदुल बच्चेँ जिन्हे मैँ लाचार वेदना से गेट पर खडा देख रहा था ।जिनके माता-पिता उन्हेँ एक अच्छा प्रतियोगि और वैभवशाली बनने के लिए एक अध्यापक और एक आया के भरोसे विद्या के मंदिर मेँ धकेल जाते है और खुद किसी दफतर मेँ जीवन को ऐश्वर्य और सुभीता से बिताने के लिए लगे पडे हैँ ।प्रश्न फिर वही कि क्या शिक्षा कि यह सही उम्र है? प्यार और ममता हि हमे एक अच्छा और सदाशयत इंसान बनाती है पर अब तो माँ कि ममता और प्यार पर काल कि विजय है । ऐसा नहीँ है कि हम इसे हरा नहीँ सकते पर ये हम पे प्रबल रूप से हावी हैँ।फिर कैसे अच्छेँ व्यकित्तव का निर्माण हो ? क्यो न भ्रष्टाचार हो ? मैँ यकिनन कह सकता हूँ ,कि यही बच्चे ममता ,मोह और आपसी दूरी कि वजह से एक दिन अपने माता-पिता को वृद्धा आश्रम मेँ छोड के आयेगें...और हमारे शब्द होगेँ ....उनका बेटा तो नालायक है....।
- अम्बुज सिँह
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