Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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एक पागल

 

 

बस स्टाॅप,
कचहरी परिशर
नुक्कड़, चौक-चैराहों पर
प्रतिदिन हाथ फैलाकर भीख माॅगता
नहीं देखा जा रहा वह इन दिनों

 



वह नहीं देखा जा रहा
चाय की दुकानों पर काम करने वाले उन लड़कों को गरियाते
कपटी भर चाय पिलाने के एवज में
अपनी उम्र के हिसाब से जो परोसते भद्दी-भद्दी गालियाँ उसे

 

 


कंकड़-ढेलों की मार से जिसका होता आतिथ्य सत्कार प्रतिदिन
और माथे पर हाथ धरे बचने की मुद्रा में जो बढ़ता जाता गुर्राता हुआ आगे

 



उन वकिलों-मुवक्किलों के आजु-बाजू भी नहीं देखा जा रहा वह इन दिनों
रुपये-दो रुपये देने के एवज में जो चाहते उससे
लगातार कई-कई घंटों तक की हँसी
न समझने वाली उसकी मुस्कुराहट में
महसूसते समाप्त होती दिन भर की जो अपनी थकावटें



कहाँ और क्यूँ चला गया किसी को कुछ भी पता नहीं



उसके न रहने से लोगों के चेहरे पर छा गई खामोशी
अवरुद्ध सा हो गया हँसी का फव्वारा
दिन भर का काम समाप्त कर वापस घर लौट जाने की एक बड़ी शान्ति




पूरा पागल था वह
सभी यही कहते



वह पागल था, क्योंकि
जलपान की दुकान पर लोगों के छोड़े जूठन खाकर
मिटाया करता अपनी भूख आवारा कुत्तों के साथ
गंदे पानी पीकर बुझाता दिन भर की प्यास
सड़क पर रात्रि विश्राम कर कटती जिसकी जिन्दगी



नहीं दिख रहा कई दिनों से इधर
लोग चाह रहे जबकि वह दिखे पुरानी मुस्कुराहट के साथ
पहली नजर उसके दीदार से जिनके बीतते दिन शुभ
अनायास उसके गुम हो जाने से झलक रही परेशानी आम दिनों की तरह




किसी ने कहा, पड़ी मिली
गटर किनारे उसकी लाश



चार पहिऐ वाहन से कुचल कर हो गई होगी मौत
भूरभूरी पुल के समीप किसी ने कहा

 

उड़ती हुई किन्तु बाद में बिल्कुल पक्की
खबर आई कहीं से दोस्तों !
किसी बच्चे को बचाने में
कुर्बान कर दी अपनी जान उसने
बच्चे की न तो जाति का पता था और न ही उसकी अमीरी-गरीबी का

 

उसकी मुस्कुराहट वैसी की वैसी ही थी बावजूद इसके
चेहरे पर जो दिखा करता उसके प्रतिदिन

 

अमरेन्द्र सुमन

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