तुम्हारी कोख से बाहर निकल
दुनिया देखने की लालसा में ब्याकुल
रोक नहीं पा रही जबकि खुद को
पलभर में लिये गए तुम्हारे निर्णय से
धड़कनें थम सी रहीं
आँखों से छलक आए आँसु
छा रहा अस्तित्व पर घोर अंधेरा
माँ ! मुझे जनने से यह कैसा इंकार ?
पूरी नींद में भी महीनों तक
रात-रात भर बदलती रही करवटों के बीच
दुलारती रही, स्नेह बरसाती रही
तलाशती रही बंजर भूमि पर
एक बेटी के बेहतर भविष्य की कल्पनाएँ
अपनी ही आँखों से दूर कर देने की
जानना चाहती हूँ तुमसे,
अचानक में लिये गए तुम्हारे फैसले का रहस्य
मेरे बरक्श तुम्हारे अन्दर की घृणा
तुम्हारी मजबूरियाँ ?
सगे-संबंधियों, पड़ोसिनों के बीच
अक्सर कहा करती थी तुम ही,
नहीं होता कोई फर्क बेटे-बेटियों में
बेटों से अधिक वफादार होती हैं बेटियाँ
वे होती हैं माँ की दो सुघड़ हाथ
पिता की गैरवाजिब चिन्ता का स्थायी समाधान
परिवार की आचार संहिता ।
बिटिया सच साबित करेगी सपने की लोरियाँ गुनगुनाकर
जुटाती रही हिम्मत जिन दकियानुसी विचार धाराओं-
परंपराओं से दो-दो हाँथ करने की
कर रही उसका ही समर्थन, उसका ही स्वागत ?
सती सावित्री, सीता, अनसुईया, विरांगना लम्मीबाई
महिलाएँ ही तो थीं ये सभी
धरती पर दिया जिन्होनें एक संस्कृति को जन्म
महिला-पुरुष के रिश्तों को किया परिभाषित
सृष्टि की विस्तृत व्याख्या से अवगत कराया !
सूनी हो रही गोद के अपराधबोध से
चेहरे पर छायी उदासी, एकाकीपन बयाँ कर रही
माँ ! जमींदोज नहीं हुई अभी भी
तुम्हारी ममता, तुम्हारा अपनापन, तुम्हारी एकाग्रता।
वचन देती हूँ
पार करुँगी नहीं एक औरत के संस्कार की लक्ष्मण रेखा
महाजनों का ब्याज बनकर छलनी नहीं करुँगी
तेरे सीने को समय-असमय
मुक्त रखूँगी भविष्य की स्थायी चिन्ता से हरवक्त तुम्हें
एक बेटी का अंतिम अनुरोध
ठुकराओ न माँ
स्वीकार लो, यह जीवन मुझे लौटा दो !
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अमरेन्द्र सुमन
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