जिस व्यवस्था में आज का मानव अपनी जिन्दगी की बैलगाड़ी खींच रहा है वैसी स्थिति में किसी विषय पर गंभीर चिंतन कर उसे उपन्यास का रुप प्रदान करना बड़ा कठिन काम है, तथापि साहित्य साधना में लगे गिनती के कुछ साहित्यकारों में आज भी वह जीजिविषा देखने को मिल रही है जो दुनिया-समाज से इतर वर्तमान विडंबनाओं, परंपराओं, विचारों, रुढियों को आत्मसात कर अपनी लेखनी की धार अनवरत जारी बनाए रखने में मशगुल हैं। यहाँ बात हो रही है वैसे ही एक साहित्यकार की, जिन्होनें नौकरी से सेवानिवृत्ति पश्चात भी अपनी लेखनी की धार को कम होने नहीें दिया। संताल परगना की धरती पर पिछले 30-40 वर्षों से साहित्य साधना में लीन डाँ0 रामवरण चैधरी किसी परिचय के मोहताज नहीं। सरस्वती के सच्चे उपासक डा0 चैधरी ने कई काव्य संकलनों सहित हालिया प्रकाशित कृति काश से पलाश तक......की रचना कर इस क्षेत्र में अपनी दमदार उपस्थिति दर्शायी है।
एस0पी0महाविद्यालय, दुमका के हिन्दी विभाग में वतौर प्रोफेसर डाॅ0 चैधरी ने साहित्य के क्षेत्र में अध्यापन की एक लम्बी पारी खेली है। अथक परिश्रम कर हाल ही में उन्होनें एक उपन्यास का सृजन किया है, काश से पलाश तक.......। इस पुस्तक में डाॅ0चैधरी ने बिहारी संस्कृति व बिहारी तहजीब पर आधारित उपन्यास गढ़, खुद को उन साहित्यकारों की श्रेणी में शुमार कर लिया है जो प्रेमचंद, फणिश्वर नाथ रेणु, जेनेन्द्र की परंपरा के वाहक हैं। उपन्यास में भागलपुर के उत्तरी छोर पर अवस्थित ग्राम रामनगर का जिक्र है जहाँ कथानक की आत्मा बसती है और जहाॅ धर्म-जाति, उँच-नीच, छोटे-बड़ों की खाई से अलग हटकर रफता-रफता लोग अपनी जिन्दगी में प्रेम का मिठास समेटे सानंद जीवन जी रहे हैं।
लेखक ने उपन्यास में गंगा का किनारा, मधुमती हवा, महुआ की महक, उस पर बांसुरी की गमक जैसे शब्दों का चित्रण कर गाॅव की फिजा में प्रेम की सोंधी-सोंधी महक का छिड़काव कर यह ऐहसास दिलाने का प्रयास किया है कि ग्राम्य जीवन की अपनी एक फिजा होती है। यूँ तो प्रेम-मुहब्बत, घृणा-तृष्णा पर सैकड़ों कृतियाँ रची गई हैं, और उसे अलग-अलग तरीकों से परिभाषित भी किया गया ह,ै पर वर्तमान व्यवस्था में इसके बदल रहे स्वरुप से भिन्न इसके गंभीर पहलु पर इन्होनें जो कुछ लिखा वह गंभीर विवेचना का विषय है। लेखक के इस उपन्यास में अनारो व बनवारी नाम का पात्र पूरे उपन्यास की विषय-वस्तु है। नायक-नायिका के रुप में उपरोक्त पात्रों की पड़ताल बड़ी ही खुबसूरती के साथ किया गया है। अब देखिये न ! दुर्गा पूजा के सुभअवसर पर ललित भवन में भजन संध्या है । देवी गीत ’निमिया के गछिया पे लागल हिडोलबा’ की प्रस्तुती के बाद जैसे ही वनवारी बांसुरी के साथ प्रस्तुत हुआ अनारो अनार के फूल की तरह मन ही मन खिल गई। क्या गति है अनारो की ? आँखें सुन रही हैं, कान देख रहे हैं, चेतना के समुद्र में हलचल सी मच गई है।
अनामिका ने ठीक ही कहा है दुनिया के सांस्कृतिक मानचित्र में जो स्थान भारत का है, भारत के सांस्कृतिक मानचित्र में वही स्थान बिहार, खासकर उत्तर बिहार का परम्पराएँ आर्ष और लोक परम्पराएँ भाषिक बैभव में उत्कीर्ण, किन्तु आर्थिक अवलम्बन बिलबटा सन्नाटा, राजनीतिक चेतना भरपूर किन्तु राजनीतिक नेतृत्व कचरा ! खूब भ्रष्टाचार, खूब जातीयता, किन्तु सांप्रदायिक संकीर्णता एवं स्त्री-दोहन नाम मात्र का ।
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दंगे नहंी के बराबर, बलात्कार, दहेज-दहन, पर्दा, सती, बालविवाह, आदि भी कम-कम । चूकि यह मुख्यतः कृषि प्रधान अंचल है, इस क्षेत्र में उद्योग-धंधे आये ही नहीं, हवा-पानी अभी शुद्ध है, मौसमों के अलग-अलग रंग पहिचाने जा सकते हैं । विशेष रुप से संताल परगना के । उससे जुड़े त्योहारों के भी । गाँव, गंगा, दुर्गास्थान, जाहेरथान, जाहेरईरा, मराड़बुरु, वनवारी, अनारो, लच्छो, कँुवर, चंपा, डाॅ0 सिन्हा, डाॅ0 आशा, बिसन, किसन, संभवा, सुलेखा मुर्मू, कामरेड धीरन सरदार, जोगीन्दर, पहलवान, छतरी मंडल......उसके बाद मुबई, अपराजिता, मणिलाल,.......तरह-तरह की स्मृतियों व महीन सपनों के बीच लहरदार पेगें लेता यह उपन्यास झक् से उजागर होता है......तरह-तरह के भाषिक रजिस्टरों के साथ । अंग जनपद की लोक कथाएँ और लोकगीत जिस तरह से इसमें अनुस्यूत हैं, वहाॅ का लौकिक व प्राकृतिक भूगोल जिस तरह उजागर हुआ है वह डाॅ0 रामवरण चैधरी को रेणु की परम्परा का कथाकार सिद्ध करता है ।
. पुस्तक में अंग क्षेत्र की प्रचलित भाषा अंगिका को पूरी तहजीव से परोसा गया है जो लेखक की मातृभूमी व मातृभाषा से लगाव को दर्शाता है । इस उपन्यास में लेखक की कर्मस्थली रहा संताल परगना की जनजातीय परंपरा, आतिथ्य सत्कार, संस्कृति, मातृभाषा और सामाजिक सरोकारों को भी पूरी तरह शामिल किया गया है । प्राचीन अंगप्रदेश का अंग भले ही अब झारखण्ड का एक हिस्सा हो, किन्तु इस क्षेत्र में बसने वालों का एक बड़ा वर्ग अंगिका भाषा-भाषी है।
इसी पुस्तक में उद्धृत वाक्य...... पढ़े-लिखे लोग प्रेम-पत्र लिखना जानते हैं, वनवासी प्रेम-पत्र लिखना नहीं जानते । मांझी.....बालू के भीतर का सोता । उपर रुखा, भीतर गीला । वासना फूस की आग ह । प्रेम मंदिर का अखंड दीप। आग मगर दोनों में एक समान । बिना आग के दीया जल नहीं सकता । बिना वासना के प्रेम नहीं हो सकता । वासना कीचड़ है तो प्रेम फूल। उपन्यास में आगे जिक्र है..... अरे बोढ़ना! गिरामी उठाव । छोटू ! पाल खीचैं के जोगाड़ बाँध। देखिहें बेटा ! हवा बड़ी तेज छौ । रस्सी केँ जरा ढीले देनेँ राखिहें, हों, कस्सी कैँ पकड़नेँ राखिहें । ज्यों-ज्यों उपन्यास की धरातल से पाठकों का सम्पर्क बढ़ता जाता है इसे पढ़ने की प्यास बढ़ती ही जाती है। उपन्यास का कोई पृष्ठ ऐसा नहीं जो पढ़ने में निरस लगे, हास्यापद लगे ।
हम प्रायः मंदिर की दीवारों को छूकर समझ लेते हैं कि देवता को छू रहे हैं। जब देवता को छूते हैं तो घटना घटती है। खजुराहो..... कला और आनंद। इसके सिवा कुछ नहीं.... यहाँ जीवन का खुला यथार्थ उत्कीर्ण है.......पुरुष और प्रकृति ! योनि और लिंग ! सृजन ! संसार ! कटाक्ष ! मनोवेदना ! स्पंद ! उल्लास !......जो हो, काम की अवदमित चेतना को यहाँ मोक्ष मिलता है। उपन्यास में लेखक की संवेदना समझिये। ’कौन पुकार रहा है मुझे ? अनारो के चेहरे पर धीरे-धीरे कुछ नयापन सा आने लगा है.......वह लौट रही है पीछे.......कहाँ ? गंगा का किनारा! झौवा का जंगल ! काश के फूल ! मस्तपुष्पगंधा! मकई का खेत ! सावन का महीना ! बाढ ़! पानी ! चाँदनी रात ! बाँसुरी ! चीजों को कहाँ, किस रुप में, उसकी अपनी भौगोलिक परिस्थिति में, गाँव के संस्कार में, उसकी महक रही संस्कृति में कैसे परोसना है लेखक ने पूरी तकनीकी पहलुओं को सामने रखकर उसे स्थान दिया है ।
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उपन्यास के नायक-नायिका के बीच कहीं-कहीं संवाद का स्पंदन कुछ इस तरह की बनी है कि जब तक गंभीरता से इसे नहीं पढ़ा जाऐगा उसे समझ पाना दुश्कर तो नहीं कठिन अवश्य होगा । कुल मिला-जुला कर उपन्यास काफी मजेदार है । पाठकों के लिये उपन्यास को पढ़ना, उनके ज्ञानकोश में अलग तरह की चीजों को सहेजने के लिये महत्वपूर्ण बाध्यता से कम नहीं ।
पुस्तक:- काश से पलाश तक......(उपन्यास)
उपन्यासकारः- डाॅ0 रामवरण चैधरी
कुल पृष्ठः- 151
पुस्तक का मूल्यः-250 रुपये मात्र
प्रकाशकः- मंजुला प्रकाशन, दुमका (झारखण्ड)
उपन्यासकार का परिचयः-
नामः- डाॅ0रामवरण चैधरी
जन्मः- बिहार के मुंगेर जिलान्तर्गत ग्राम चडौन में 20 नवम्बर 1939 को
शिक्षाः- मैट्रिक (रन्नूचक मकन्दपुर उच्च विद्यालय)
इंटर (मुरारका काॅलेज, सुल्तानगंज)
बी0ए0 (हिन्दी आनॅर्स) एवं स्नातकोत्तर(टी0एन0 बी0 काॅलेज एवं
स्नातकोत्तर विभाग भागलपुर)
हिन्दी शिक्षक के पद पर प्रथम नियुक्ति रन्नूचक मकन्दपुर उच्च विद्यालय, भागलपुर
संध्या महाविद्यालय में बाद में वतौर व्याख्याता । वर्ष 1988 ई0 में स्थानान्तरित
होकर संताल परगना महाविद्यालय, दुमका में पदस्थापित। सेवानिवृत्ति तक
इसी महाविद्यालय में अध्यापन का कार्य
कृतियाँः-द्रवन्ती (1977) ऋतावरी (1987) चलो चलें दीपक जलाने (2002) देश और संदेश (2007)
सभी काव्य कृतियाँ
उपन्यासः- अंतिम कृति काश से पलाश तक.......
डाॅ0 चैधरी वर्ष 2002 से 2005 तक हिन्दी सलाहकार समिति
(वन एवं पर्यावरण मंत्रालय, भारत सरकार) के सदस्य रहे।
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