बहुत दिनों से
घर के पूर्वी कोने में
सहेज कर रखे गए
चमड़े के उस बैग को जला दिया गया
नौकरी पाने की खुशी में
खरीद रखा था नाना जी ने जिसे चालीस वर्षों पूर्व
एक बड़े शहर के फूटपाथ पर पहली दफा
फेंक दिये गए पुराने पतलून
चिप्पी सटे जूते
फटी जुराबें
आईना-कंघी
उनकी अनुपस्थिति में भी
प्रति दिन एहसास करा जाता जो
उनकी उपस्थिति का
कबाड़ीखाने में लगातार हथौड़े की मार सह रहे
उस चारपहिया गाड़ी को भी बेच दिया गया बहुत कम कीमत पर
आखिरी मर्तबा जिसे बनाने में खत्म करने पड़े थे उन्हें
माह भर के पेंशन के सारे रुपये व बुढ़ापे का श्रम
बाबू जी के लिखे पोस्टकार्ड
माँ की तरफ से उसमें भेजा गया दीर्घायु का आर्शीवाद
बच्चों को प्यार
सब कुछ शामिल था उस कूड़े के ढेर में पड़े
एक छोटे से पत्र में
संभाल रखा था जिन्हें नामालूम वर्षों से सिरहाने नानाजी ने
देखते रहे सबकुछ सामने
उनके समय की व्यवस्था में ही प्रतिदिन आ रहे बदलाव को
अपने ही अधिकारों में इस समय की पीढ़ी के अतिक्रमण को
प्रयास करते रहे ढ़ॅूढ़ते रहने के
समय के अन्तर में परिवर्तित मनोदशा को
चाह कर भी
नहीं कर पा रहे थे बयां
कि जिस चमड़े के बैग को जला दिया गया वेवजह
जीवन की कही-अनकही
कितनी यादें रही होगीं उससे जुड़ी
नाना जी अब नहीं करते परवाह
अपने सामानों की
निर्धारित स्थान पर सहेज कर रखने की आदत के वाबजूद
वे करते वही
उनकी पकड़ से कैच कर लिये जाने वाले काम
की तलाश में
निगरानी रख रहे बच्चों को जो पसंद आ रहा होता।
अमरेन्द्र सुमन
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