घर की मुंडेर पर
कौओं के काॅव-काॅव करने से पहले
कपड़े का गट्ठर कंधे पर सहेजे
अविराम वह चला जा रहा था एकान्त, अंतहीन दिशा की ओर..............
वह चला जा रहा था..............
उन असंभावित ठिकानों की ओर
जहाॅ से दो जून रोटी के लिये
नकद प्राप्ती की आशा बेईमानी भी हो सकती थी
उसके लिये
विश्वास की नैया में सवार
रोज की भांति फिर भी वह चला जा रहा था
वह चला जा रहा था
देश-समाज की समस्याओं से इतर
घर चलाने की चिंता में कोल्हू के बैल की तरह
खुद को शामिल करते
वह चला जा रहा था
उन मासूम बच्चे-बच्चियों की परवरिश की चिन्ता में अकेले
असमय काल के गाल में समा गए
जिनके माता-पिता पिछले साल
दूध की जगह जिन्हें प्राप्त हो रही थी
नमक घुला पानी
ंगिनती की रोटियाँ
कई-कई दिनों की थकावट से
लगातार संघर्ष के बावजूद
पगडंडियों से शहर तक
उसे तय करने थे वे रास्ते
जिनके भरोसे वह आश्वस्त कर चुका था बच्चों को
अगले कुछ दिनों के राशन-पानी की जुगाड़ के लिये
वह चला जा रहा था अपने छोटे-छोटे कदमों पर बल देते
उसी एक ठिकाने की ओर
दूसरे दिन आने का आश्वासन देकर
जो ग्राहक चाह रहे थे अपना पिंड छुड़ाना
एक छोटी सी पूँजी का गट्ठर
संभाले जा रहा था एक फेरीवाला के संपूर्ण जीवन का बोझ
बच्चों की स्वभाविक हँसी
उनके मृत माँ-बाप की इच्छा
अमरेन्द्र सुमन
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