अमरेन्द्र सुमन
ज्ंागल-पहाड़, नदी-घाटी, पेड़-पौधे, पशु-पक्षी व जनजातीय संस्कृति से
ओत-प्रोत प्राचीन अंग जनपद का हिस्सा व वर्तमान संताल परगना की भूमि जहाँ
एक ओर भूगर्व वैज्ञानिकों, जीव वैज्ञानिकों, वनस्पति वैज्ञानिकों,
इतिहासकारों पुरातत्ववेत्ताओं व पर्यावरणविद्ों के लिये सदियों से महान
खोज का विषय रहा है, वहीं दूसरी ओर इस क्षेत्र की आदिम आवोहवा,
भाषा-संस्कृति, पर्व-त्योहार, खान-पान, नृत्य-गीत, संगीत पर केन्द्रित
अनुसंधान का कार्य वर्षों से जारी रहा, जो अब तक अक्षुण्ण बना हुआ है। इस
क्षेत्र की साहित्यिक समृद्धि इस बात का गवाह रही है कि यहाँ से जुड़े
लोगों ने संताल परगना को ही अपनी रचनाधर्मिता का आदर्श बनाया तथा उसे
आत्मसात करते हुए जन-जन के अवलोकनार्थ उसे प्रस्तुत करने का प्रयास किया।
सृजन की लिपि चाहे जो भी रही हो, सृजन का विषय संताल परगना क्षेत्र की
सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, वैचारिक व सांस्कृतिक पृष्ठभूमि पर आधारित
कथा, कहानी, कविता, लेख, दोहे, बीजक, एकांकी, नाट्य, प्रहसन, स्तंभ,
उपन्यास, यात्रा वृतांत, झूमर, लोकगीत जैसी चीजें ही मुख्य रही है।
हिन्दी, संताली, अंगिका, बंग्ला, भोजपुरी, संस्कृत, अवधी व ब्रज भाषाओं
के कई एक स्वनामधन्य कवि/ लेखकों/ इतिहासकारों/ साहित्यकारो/ विद्धानों
ने इस धरती पर जन्म लिया तथा अपने कृतित्व से इस क्षेत्र को गौरवान्वित,
उद्भाषित व परिभाषित करने का प्रयास किया।
हिन्दी साहित्य के इतिहास में भारतेन्दु युग को आधुनिक हिन्दी साहित्य का स्वर्णिम युग कहा जाता है,
किन्तु भारतेन्दु के अवसान काल में ही संताल परगना के वंदनवार (गोड्डा)
में वर्ष 1885 में जन्में प0 रामचरण वाजपेयी को संताल परगना के प्रथम
साहित्यकार का गौरव जाता है जिन्होेनें मात्र 41 वर्ष की आयु में ही
हिन्दी, संस्कृत, अवधी व ब्रजभाषा में कई-कई पुस्तकों की रचना कर इस
क्षेत्र की साहित्यिक हवा को एक दिशा प्रदान की। लोक आस्था व लोक
संस्कृति उनकी रचना की मूल प्रवृत्ति रही है। अवधी व संस्कृत में रचित
उनकी पुस्तक श्रीमद्दूबेभयहरणचरितामृत व संस्कृत तथा ब्रजभाषा में लिखी
गई पुस्तक पावस पियुष इसी आस्था का प्रतीक मानी जाती है। राधा-कृष्ण को
नायक-नायिका बनाकर श्रृँगार रस में लिखी गइ्र्र कृति पावस पियुष आने वाली
पीढ़ियों के लिये दुर्लभ दस्तावेज से कमी नहीं है। उपरोक्त के अतिरिक्त
बंग्ला भाषा में पंचकन्या (खण्ड काव्य) भी उन्होनें लिखा। प0 रामचरण
वाजपेयी के समकालीन साहित्यकार थे प0 दर्शन दूबे।
प0 दर्शन दूबे ने प्रेम प्रवाह (गीत) शैवानन्द (भगवान शिव के गीत, भजन)
युगल विहार (नायक-नायिका संलाप) श्रँृगार तिलक (ब्रजभाषा में श्रृँगार रस
पर आधारित) ऋतुमाल (ब्रजभाषा में) संगीत सार, दर्शन विनोद, मणिरत्नम
माला, प्रबोध चन्द्रिका जैसी पुस्तकों/खण्ड काव्यों/ कविता संग्रहों की
रचना की।
संताली संस्कृति-साहित्य में गहरी रुचि
रखने वाले अंग्रेजी के विद्वान नार्वे निवासी पी0 ओ0 बोर्डिंग ने वर्ष
1922 ई0 में संताल परगना जिला से त्रैमासिक पत्रिका पेड़ा होड़ का प्रकाशन
प्रारंभ किया जो जनजातीय जीवन-संस्कृति पर आधारित थी। इसके अलावे संताली
भाषा के जनक पाॅल जुझारु सोरेन का नाम भी बड़े अदब से इस वन प्रांतर की
मिट्टी को पुष्पित व पल्लवित करने में लिया जाता है। गोड्डा के प0
बुद्धिनाथ झा कैरव (कैरव कवितावली) कुंडाग्राम (बैद्यनाथ धाम) के
भवप्रीतानन्द ओझा (जन्म-1886, मृत्यु-1970), रुंजीग्राम (गोड्डा) के
भिखारी ठाकुर अधूरा (जन्म-05 अक्टूबर 1919, मृत्यु-10 सितम्बर 1976),
नकछेदी राम, जर्नादन प्रसाद मिश्र ’परमेश’, गोविन्द चन्द्र अग्रवाल,
वाजित लाल मिश्र, महेश नारायण, व अन्य ऐसे धार्मिक, सामाजिक व राष्ट्रीय
चेतना के प्रवीण कवि/ लेखक व साहित्यकार हुए, जिन्होनें हिन्दी सहित
अलग-अलग भाषाओं की ओजपूर्ण शैली में रचनाएँ लिखी और आम जनता को वैचारिक
रुप से काफी समर्थ व परिपक्व बनाने का काम किया। भारतीय संविधान में
हिन्दी को राष्ट्रभाषा का दर्जा प्राप्त होेने के बाद जहाँ एक ओर हिन्दी
में लिखने वालों की संख्या मंे आशातीत वृद्धि हुई, वहीं हिन्दी साहित्य
को एक नया आयाम भी प्राप्त हुआ। वर्तमान संताल परगना प्रमण्डल के विभिन्न
जिलों यथा-गोड्डा, दुमका, देवघर व साहेबगंज में 1950-60 के दशक में कई
ऐसे स्वनामधन्य साहित्यकार प्रकट हुए जिन्होनें हिन्दी सहित अन्य
क्षेत्रीय भाषाओं में श्रेष्ठ रचनाओं से लम्बी अवधि तक अपनी अनुगुंज बनाए
रखी। महेश्वर झा ’व्यथित’, श्याम सुन्दर मस्ताना, परमानन्द लाल (सुँड़नी,
मेहरमा, गोड्डा) सुमन सुरो (जन्म स्थान-केरो गोलहट्टी, बाँका।
कर्मस्थली-दुमका) डा0 मधुसूदन साहा (ग्राम-धमसाई, गोड्डा) विशंकर मिश्र
(वैद्यनाथ धाम, देवघर) रघुनन्दन झा ’राही’, (गोलहट्टी, गोड्डा) सतीश
चन्द्र झा (दुमका) डोमन साहु ’समीर’, (ग्राम-पंदाहा, गोड्डा) रंजन
सूर्यदेव, अनिरुद्ध प्रभाष (बनियाडीह, गंगटी गोड्डा) तारकेश्वर ठाकुर
’सुमन’ (गंगटी, गोड्डा) डा0 मधुसूदन ’मधु’, (चिकनिया, दुमका) डा0 श्याम
सुन्दर घोष (20 नवम्बर 1934 को जन्म तथा अक्टूबर 2016 में मृत्यु। काव्य,
कथा संग्रह, हास्य-व्यंग, संस्मरण, समाज शास्त्र, उपन्यास, नाटक, भाषा
चिन्तन, और बाल साहित्य पर अनेकानेक पुस्तकों की रचना, अनेकानेक पुस्तकों
व पत्रिकाओं का संपादन, कुल 64 पुस्तकों की रचनाएँ) मनमोहन मिश्र (पाकुड़)
प्रो0 मुरलीधर झा, विद्यापति ठाकुर, प्रो0 सत्यधन मिश्र, डा0 यू0 एस0
आनन्द, व अन्य का नाम पूरे गर्व से लिया जा सकता है।
शिक्षा विभाग के एक अधिकारी गोपाल लाल वर्मा के सभापतित्व में वर्ष 1951 में
दुमका में साहित्य परिषद् जैसी साहित्यिक संस्था की स्थापना हुई जहाँ
विभिन्न साहित्यिक कार्यक्रमांे के अलावे नियमित तुलसी जयंती का आयोजन
हुआ करता था। गोपाल लाल वर्मा के अथक प्रयासों का ही प्रतिफल था कि महेश
नारायण साहित्य शोध संस्थान, जिला पुस्तकालय संघ व जिला हिन्दी साहित्य
सम्मेलन जैसी साहित्यिक संस्थाओं का सृजन संभव हो पाया। वर्ष 1950-55 के
आसपास नयी चेतना नामक साहित्यिक संस्था ने अपनी गतिविधियों से एक नयी
पहचान कायम की। इस संस्था के प्रणेता/ जनक थे प्रफुल्ल चन्द्र पटनायक।
पंकज गोष्ठी व हरिसभा जैसी संस्थाओं ने अपने-अपने मंचों का इस्तेमाल कर
साहित्यकारों को एक सूत्र में साहित्कारों को पिरोने का कार्य किया।
अर्पणा व वातायन जैसी पुस्तकों का प्रकाशन पंकज गोष्ठी की विशेष उपलब्धी
मानी जाती है। साठोत्तर काल में वनफूल, रजत शिखर जैसी साहित्यिक
पत्रिकाओं का प्रकाशन भी साहित्यकार संघ द्वारा किया जाता था। रघुनन्दन
झा ’राही’ इस संस्था के महामंत्री व श्री तिलक संस्थापक हुआ करते थे।
स्व0 सतीश चन्द्र झा, नन्दलाल केजरीवाल, बलभद्र नारायण सिंह बालेन्दु,
शम्भुनाथ मिस्त्री, मनमोहन सिंह सलिल, डा0 मधुसुदन ’मधु’ रामनन्दन ’विकल’
व अन्य साहित्यिक गोष्ठियों में अपनी-अपनी रचनाओं से शमां बांधा करते थे।
साठोत्तर काल संताल परगना में रचनाकारों का काल माना जाता है। कई-कई
उम्मीदों व उर्जा के साथ नये-नये कवियों, लेखकों का आगमन तथा पूरे उत्साह
के साथ रचनाधर्मिता पूर्ण यौवन पर था। वर्ष 1965 मेें जर्नादन मिश्र
परमेश के अथक प्रयासों व अन्य कवियों के सहयोग से दुमका में एक भव्य
साहित्यिक सम्मेलन का आयोजन संभव हो पाया। इसी सम्मेलन में बिहार
राष्ट्रभाषा परिषद् द्वारा साहित्य साधना की पृष्ठभूमि पर पं0 बुद्धिनाथ
झा कैरव को तथा झूमर, लोकगीत प्रणयण के लिये पं0 भवप्रीता नन्द को
सम्मानित किया गया। कुछ वर्षो तक इसकी अनुगंुज सर्वत्र छायी रही। बाद में
यह चकाचैंध शनैः शनैः शिथिल पडती चली़ गई और शहर मंे अचानक साहित्यिक
सन्नाटा पसर गया।
80 के दशक में संताल परगना की साहित्यिक जमीं पर एक नयी चेतना का जन्म हुआ।
गहरे साहित्यिक सन्नाटे के बीच एक मुट्ठी रौशनी का बीज लेकर प्रकट हुए
अंगिका भाषा के महाकवि सुमन सुरो। साल तो स्पष्ट नहीं, किन्तु कहा जाता
है कि वर्ष 1982 में महाकवि सुमन सुरो की अगुवाई व उनके अथक प्रयास से
दुमका में अंगिका विकास समिति नाम की साहित्यिक संस्था का गठन हुआ जिसने
संताल परगना की साहित्यिक फिजा में एक नयी जान फूँक दी। रविवारीय
गोष्ठियों के माध्यम से हिन्दी, उर्दू, अंगिका, मैथिली, मगही, संताली,
भोजपुरी व राजस्थानी भाषा में लिखने-पढ़ने वालों को एक साझा मंच प्राप्त
हुआ।
सभी भारतीय भाषाओं को एक सूत्र में पिरोये रखने की प्रतिबद्धता के साथ आपसी
सहमति से वर्ष 1984 में भाषा संगम नाम की एक नयी संस्था अस्तित्व में आई।
संस्था को गतिशील बनाए रखने के लिये सूबेदार सिंह ’अवनीज’ को जहाँ एक ओर
अध्यक्ष का दायित्व सौंपा गया वहीं बलभद्र नारायण सिंह बालेन्दु को
महासचिव बनाया गया।
भारतीय भाषाओं की साहित्यिक-सांस्कृतिक
संस्था के रुप में स्थापित भाषा संगम के तत्वावधान में वर्ष 1985, 1986,
1987 व 1989 के वार्षिक साहित्यिक आयोजनों में आचार्य शिव बालक राय, डा0
विष्णु किशोर झा ’बेचन’, आनंद शंकर माधवन, राम प्रसाद मिश्र, बुद्धिनाथ
मिश्र, संताली, हिन्दी, अंगिका व भोजपुरी भाषा के विद्वान डा0 डोमन साहु
समीर (आँगी, अंगप्रिया, कंचन लता, साहित्य भारती, हिन्दुस्तान, संकल्प व
अंगिकांचल में सैकड़ों रचनाएँ प्रकाशित) जैसे स्वनामधन्य साहित्यकारों की
गरिमामय उपस्थिति व उनकी प्रतिभाओं से लोग आहलादित होते रहे। संताल परगना
की एकमात्र साहित्यिक संस्था भाषा संगम ही रही, विधिवत साहित्यिक आयोजनों
का जिसे श्रेय जाता है। कैरव कवितावली, बाँस-बाँस बाँसुरी, माटी कहे
कुम्हार से, उध्र्वरेता, जल समाधि, वीर जवानों तुम्हें प्रणाम, रुप-रुप
प्रतिरुप, जैसी कृतियों का प्रकाशन इस संस्था की अमूल्य उपलब्धि/धरोहर
रही है। इसी दौरान नवागन्तुक युवा कवियों/ साहित्यकारों को एक मंच पर
लाने का कार्य आर के नीरद ने किया।
पेशे से पत्रकार व साहित्यकार आर के नीरद के अथक प्रयासों का ही प्रतिफल रहा कि
’संताल परगना साहित्य मंच संगोष्ठी’, जैसी संस्था का आर्विभाव हुआ। मासिक
कवि गोष्ठी के आयोजनों से लगातार यह संस्था अपना कद बढ़ाती रही। नये-नये
कवियों/ लेखकों व अन्य साहित्यिक मिजाज के लोगों का जुड़ाव भी शनैः शनैः
संस्था से होता रहा। उप राजधानी दुमका के मयूराक्षी नदी तट पर अवस्थित
हिजला मेला का बाहरी प्रशाल, जन पुस्तकालय व नेहरु पार्क संस्था द्वारा
आयोजित गोष्ठियों की सबसे उर्वर भूमि व सशक्त गवाह रही है। अलग-अलग
साहित्यिक महापुरुषों की जयंती व पुण्यतिथि मनाने की कवायदें भी संस्था
के तत्वावधान में लगातार जारी रहीं। नगर परिषद् चैक से अम्बेडकर (डीसी)
चैक तक प्रसिद्ध साहित्यकार आचार्य शिवपूजन सहाय के नाम पर पथ के
नामांकरण का श्रेय इसी संस्था को जाता है। यह दिगर बात है कि हाल के
वर्षों में नगर परिषद् व जिला प्रशासन ने उपरोक्त पथ का नामकरण किसी अन्य
के हिस्से कर साहित्यकारों को भारी पीड़ा पहुँचायी।
रंगमंच, व साहित्य से गहरा लगाव रखने वाले युवा कवि, स्वतंत्र पत्रकार व सामाजिक
कार्यकर्ता अशोक सिंह के हस्तक्षेप से साहित्यिक, सामाजिक व सांस्कृतिक
चेतना को समर्पित एक नयी संस्था का अभ्युदय हुआ जिसकी पहचान जागृति मंच
के रुप में हुई। यह मंच सिर्फ कवियों/ लेखकों तक ही सीमित नहीं रही,
अपितु नृत्य-संगीत, गायन-वादन, अभिनय, मूर्तिकला व चित्रकला मंच की
मिश्रित पहचान बनी। दुमका व संताल परगना के अन्य जिलों के रंगकर्मी एक
मंच पर आकर अपनी पहचान बनाने लगे। तकरीबन एक दशक तक यह संस्था निर्विरोध
अपना काम करती रही। टुकड़े-टुकड़े दर्पण, सुबह करीब है, मुट्ठी भर बीज व
हमें भी कहने दो जैसी काव्य पुस्तकों का प्रकाशन इस संस्था की प्रमुख देन
है। साहित्यकारों पर वीडियो व आॅडियो संस्करण का श्रेय भी इसी संस्था को
जाता है। पेशे से शिक्षक डा0 यू एस आनन्द के संपादन में प्रकाशित
साहित्यिक लघु पत्रिका अपूव्र्या इसी अवधि का श्रीगणेश है। एसपी
महाविद्यालय दुमका में हिन्दी के, विद्वान शिक्षक, कवि व लेखक डा0 रामवरण
चैधरी की पहल पर अखिल भारतीय साहित्य परिष्द की जिला इकाई का गठन हुआ।
साहित्य के दो अलग-अलग धड़े प्रगतिशील लेखक संध व जनवादी लेखक संघ भी इन दिनों लगातार
सक्रिय रहा। लोग इन अलग-अलग धड़ों के विचारों से प्रभावित जुड़ने भी लगे।
कई वर्षों तक दुमका की साहित्यिक गतिविधि इसी तरह चलती रही।
झारखण्ड-बिहार के सीमावर्ती क्षेत्रों यथा-बौंसी, भागलपुर से भी कवियों/
साहित्यकारों का आगमन दुमका होता रहा। कहते है समय और ज्वार-भाटा किसी का
इन्तजार नहीं करता। समय के साथ-साथ संताल परगना की सबसे उर्वर साहित्यिक
धरा फिर से विरानियों के घेरे में आ गई। वजह चाहे जो भी रही हो, एक मंच
पर कवियों की सहभागिता रुंधती चली गई, अंततः गुलमोहर की मानिंद
मुस्कुराता हुआ संताल परगना का साहित्यिक संसार सिमटता चला गया।
वर्ष 2009 में साहित्यकार सतीश चन्द्र झा की मृत्यु के बाद साहित्य की अविरल
धारा को बनाए रखने के उद्देश्य से उनकी स्मृति में उसी वर्ष सतीश स्मृति
मंच का गठन किया गया। पिता से प्राप्त संस्कारों को अक्षुण्ण बनाए रखने
के निमित्त उनके पुत्रों यथा- कुन्दन कुमार झा, विद्यापति झा व अन्य के
सामुहिक प्रयास से निर्मित इस संस्था ने एक नये जोश के साथ दुमका की
साहित्यिक धरा को फिर से पल्लवित करने का प्रयास किया जो निरंतर जारी है।
इस मंच के गठन के बाद महाकवि सुमन सुरो को मंच का पहला अध्यक्ष बनाया
गया। सुमन सुरो की अध्यक्षता व इस मंच के तत्वावधान में नियमित गोष्ठियों
का एक सिलसिला ही चल पड़ा। सतीश चन्द्र झा की मृत्यु के बाद उदास सतीश
कुटिया में फिर से हरियाली लौट आयी।
महाकवि सुमन सुरो के देहावसान के बाद मंच के अध्यक्ष की जिम्मेवारी
शंभूनाथ मिस्त्री को सौंप दी गई। वर्ष 2015 तक श्री मिस्त्री मंच के
अध्यक्ष रहे। अस्वस्थ चल रहे शंभूनाथ मिस्त्री ने मंच के अध्यक्ष की
जिम्मेवारी से खुद को अलग कर लिया। हिन्दी के वि़द्वान शिक्षक, प्रखर
वक्ता व आलोचक डा0 मनमोहन सिंह फिलवक्त सतीश स्मृतिमंच के अध्यक्ष हैं।
साहित्य के कई बड़े कार्यक्रमों को संपन्न कराया गया। स्व0 सतीश चन्द्र झा
की जयंति के अवसर पर वर्ष 2009 से लगातार मंच के द्वारा झारखण्ड व अंग
क्षेत्र के साहित्यकारों (प्रतिष्ठित हिन्दी व अंगिका भाषी) को सम्मानित
करने की परंपरा प्रारंभ हुई है जो निर्बाध जारी है। इस मंच की सुन्दरता
को अनवरत बनाए रखने में डा0 ताराचंद खबाड़े, प्रो0 मनमोहन मिश्र, डा0
रामवरण चैधरी, विद्यापति झा, आशीष झा, कुन्दन कुमार झा, राजीव नयन
तिवारी, अशोक सिंह, अमरेन्द्र सुमन की भूमिका सराहनीय रही है।
संताल परगना में साहित्य की लम्बी विकास यात्रा में अन्य जिन वरिष्ठ
कवियों /साहित्यकारों ने अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभायी उनमें स्व0
शुद्धदेव झा उत्पल, उमाशंकर श्रीतिलक, प्रफुल्ल चन्द्र पटनायक, प्रमोद
कुमार भद्र, स्व0 सुभाष चन्द्र भ्रमर, स्व0 महादेव मराण्डी, स्व0 बासुदेव
बेसरा, स्व0 बाबूलाल मुर्मू आदिवासी, स्व0 नुनकू सोरेन, नईम नाँदा, ए0
चिराग, डा0 संध्या गुप्ता, डा0 अमरेन्द्र कुमार सिन्हा, डा0 खिरोधर यादव,
अनंत लाल खिरहर, हेना चक्रवर्ती, डा0 विद्यानाथ झा विदित, प0 अनूप कुमार
वाजपेयी (पुरातत्ववेत्ता, साहित्यकार व पत्रकार) शिव नारायण यादव, शंकर
मोहन झा, उत्तम पियूष, जे पी शर्मा, ब्रज किशोर पाठक, रजनीकांत राकेश,
उमाशंकर उरेण्दु, आनंद मोहन तिवारी, प्रवीण तिवारी, भैया हांसदाक चासा,
मिस्त्री सोरेन, चुण्डा सोरेन सिपाही, डा0 प्रमोदनी हांसदा इत्यादि का
नाम बड़े गर्व के साथ लिया जाता है। समकालीन साहित्य से जुड़कर राष्ट्रीय
फलक पर पिछले कुछ वर्षों के दरम्यान जिन कवि/ साहित्यकारों ने अपना परचम
लहराया है उनमें कवि ज्ञानेन्द्रपति, डा0 खगेन्द्र ठाकुर, विनय सौरभ,
निर्मला पुतुल, राहुल राजेश, अशोक सिंह, अमरेन्द्र सुमन, देवेश आत्मज,
नीलोत्पल मृणाल, शामिल हैं। वर्ष 2016 में साहित्य अकादमी से पुरुस्कार
प्राप्त नीलोत्पल मृणाल के उपन्यास डार्क हाॅर्स ने काफी लोकप्रियता पायी
है। विश्वजीत राहा, नवीन कुमार गुप्ता, राहुल प्रियदर्शी, रोहित
स्वप्निल, कैलाश केशरी, निसार अहमद खाँ, तरुण कुमार लाहा, डा0 मु0 हनीफ
अकेला (कृति-कुछ भूली-बिसरी यादें, पत्थर के दो दिल-एक सामाजिक दृश्य व
व्हेयर यू) डा0 छाया गुहा, कमलाकांत प्रसाद सिन्हा (पूर्व विधायक
पोड़ेयाहाट, गोड्डा) व अन्य सृजन कार्य में सतत् क्रियाशील हैं। गीत, गजल
व कविता के क्षेत्र में कमलाकांत प्रसाद सिन्हा एक चर्चित हस्ताक्षर रहे
हैं। यह दिगर बात है कि अपने ही घर में एक अजनबी की तरह उन्होनें अपना
जीवन व्यतीत किया।
कवि ज्ञानेंद्रपति व विनय सौरभ आधुनिक हिंदी कविता के अत्यंत सम्मानित व
पढ़े जाने वाले कवि रहे है। कवि ज्ञानेन्द्रपति की काव्य कृति ‘संशयात्मा’
पर वर्ष 2006 में उन्हें प्रतिष्ठित ‘साहित्य अकादमी पुरस्कार’ प्राप्त
हो चुका है। वे ‘साहित्य अकादमी पुरस्कार’ से सम्मानित होने वाले झारखंड
के पहले कवि-साहित्यकार हैं। वरिष्ठ कवि ज्ञानेंद्रपति को ‘पहल सम्मान’
से भी नवाजा गया है। .उनका रचना संसार झारखण्ड के आदिवासियों-मूलवासियों
के इर्द-गिर्द ही सिमटता रहा है। प्रसिद्ध समालोचक व विचारक डॉ0 खगेन्द्र
ठाकुर ने भी कविता, आलोचना व व्यंग्य की विधा में कालजयी रचनाओं को
पाठकों के समक्ष रखने का काम किया है। डा0 खगेन्द्र ठाकुर का कहना सही है
कि साहित्य का स्त्रोत जनता ही है। कविता, आलोचना व व्यंग्य इनकी विधा
रही है। गंभीर कविता के पक्षधर रहे कवि विनय सौरभ की रचना कई-कई
पत्रिकाओं की संपादकीय रही है। कवि विनय सौरभ कइऱ्-कई पुरस्कारों ने
नवाजे जाने वाले संताल परगना प्रमण्डल के सबसे समृद्ध युवा साहित्यकार
हैं। संताल परगना व शेष झारखण्ड की जनजातीय पृष्ठभूमि पर इस क्षेत्र की
महिला कवियत्रियों/ लेखिकाओं ने भी पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर
अपने़े-अपने अनुभवों को रचनाओं के माध्यम से पाठकों के बीच परोसने का काम
किया है। संताल समाज में औरतों के दैहिक शोषण व अत्याचार की बारीकी से
पड़ताल व उनकी समस्याओं व अधिकारों की वकालत करने वाली कवियत्रि निर्मला
पुतुल संताली व हिन्दी में समान रुप से लिखती रही हैं। उनकी कविताओं में
शब्द व भाव नगाड़े की तरह गुंजायमान रहते हैं। उनकी रचनाएँ आधुनिक सभ्यता
में विकास व प्रगति की अवधारणा पर केन्द्रित रहती हैं। संगीत, प्रकृति व
कल्पना निर्मला पुतुल की कविता का सबल पक्ष रहा है। साहित्यकार, पत्रकार
व सामाजिक कार्यकर्ता अशोक सिंह व राहुल राजेश साहित्य की भावी संभावनाओं
के कल्पवृक्ष हैं। पत्रकार व साहित्यकार अमरेन्द्र सुमन अपनी रचनाओं के
माध्यम से एक बड़ा पाठक वर्ग तैयार करने की तैयारी में लगातार क्रियाशील
देखे जा रहे हैं। सतीश स्मृति मंच से हालिया जुड़े युवा
साहित्यकार-सिद्धार्थ शाक्य, अंजनी शरण, कश्यप नंदन व सौरभ कुमार सिन्हा
इन दिनों काफी क्रियाशील देखे जा रहे हैं। कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है
कि भारतीय स्वतंत्रता के पूर्वकाल से अब तक संताल परगना में साहित्यकारों
ने समाज में परिवर्तन की तमाम तरह की संभावनाओं पर पढ़ने-लिखने व
राष्ट्रीय फलक पर उसे पहुँचाने का काम किया है जो निरंतर जारी है।
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