दर्पण के धुंधले पटल पर
मुरझा रही चमड़ी की परछाई देखकर
एक बुढ़ाता उम्र ऐसे ठिठका
जैसे सकपका पड़ते हैं खेतों की पकी फसल
नामालूम समय में अपने ठिकानों पर
अचानक आ धमके चूहों को देखकर
परिश्रम की चोंच से बिखरे तिनकों को टाँककर
जिस तरह बनाती है गोरेया इत्मिनान से
अपने रहने भर तक के घोषले
बची-खुशी खुशियों के बिस्तर पर थकान मिटाने
चढ़ती-उतरती सी साँसों को पीनेवाले उस बूढ़े वक्त ने
थरथराती हथेलियों के सहारे बनाए थे
खून-पसीने के गिलावे से तैयार चलताउ एक झोपड़ी
जिन्दगी की धूप-छांव की डायरी से
याद न रहने वाली चीजों को उघारने
अपने दिल की बैचेन कोठरी से।
उसकी डायरी के पृष्ठों पर पसरे आँगन में
लुका-छिपी का खेल खेल रहा था
एक भयमुक्त किन्तु लाचार बचपन।
हमउम्र कुवाँरियों के माथे पर धरे
मिट्टी के घड़े पर पत्थर फेंकने की जवान शरारतें
और अधपके तेतर से ललचाती जीभों को
बलजबरी अपनी ओर आकर्षित करने की
फेनिल सोंच वाली शरारती योजनाएँ।
सिहरती यादों की टांगों के सहारे खड़ा
उसके हरमुठ बचपन को धकियाते
किशोर ख्यालउम्र शामिल थीं
सपनों की उड़न तश्तरी पर शिकार करने
असंभव सी दिखने वाली आकांक्षाओं का।
उसकी हिम्मत उम्मीदों की वैशाखी बनी रही जब तक
उबड़-खाबड़ रास्तों, खंदक-खाईयों को
लांघता-फलांगता रहा
रगड़ खायी तलवे के दर्द को महसूसे बिना।
सफर का हांपता घोड़ा होता जा रहा था गायब
उसकी आँखों में जलते ढिबरी की रोशनी से
रहस्यमय तरीके से
और वह अपने अवसान की पीड़ा में
ले चुका था शक्ल एक जलती मोमबत्ती का।
अमरेन्द्र सुमन
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