जिन्दगी की उदासीनता की गीली रेत से तैयार ढाको में
ढिबरियों के धुओं के घुटन से आजीज
अपनी उम्र की छोटी-छोटी सोचों के दायरे से
आगे निकल
खेत-बहियारों को लाँघते-फलाँगते
व्यस्त इमारतों की दराजों की ओर बढ़ना जारी है
नन्हें से अंकुराते हाथ-पैरों का काफिला
चढ़ती -उतरती ख्यालों का ताना-बाना बुन रहे वे
ढो रहे होते हैं अपने अषांत मन के कंधे पर
पिता के दीर्घायु जीवन की थक कर उदास हुई वैसाखी
छिंटाकषी के गुलाल की अप्रत्यक्ष मार से परेषां
माँ की आस्था की तुलसी का विरवा
भैयादूज मनाती बहनों के हाथों की मेंहदी
हथेली की कानी उॅगली से
अब नहीं चाहते वे बीत्ते भर जमीन खोद
अपने फिजूल सी सोंचो के आँगन में
आराम के बौने व्यक्ति को जन्म देना
उनके जानने से अज्ञात नहीं है
अंगुठे से ललाट के मध्य असीमित रगड़ से
मिलने वाली असंभव सी राजगद्दी का रहस्य
हवा से बातें करने वाले मासूमों की
रोजमर्रा की जिन्दगी में
बंधे काम के घंटों के अलावे
नहीं है शामिल छिपकर गुलर के फूलों को खिलते देखना
मजबूरियों की सड़क पर अपनी कच्ची उम्र की हाथों से
न निर्धारित समय तक उन्हें प्राप्त है अवसर खींचने का
समाजवाद के बैनर की लम्बी दूरी तक की बैलगाड़ी
भय चिन्ता निराषा से हटकर
अपनी अलग दुनियाँ में खोये
वे साबित हो चुके हैं अब सबसे साबुत कामगार
उनके अरमानों की हो रही भ्रूण हत्या रोज व रोज
और वे लड़ते जा रहे जीवटता से
संघर्ष के कुरुक्षेत्र में अपने दम पर
व्यवस्था के विरुद्ध कभी न समाप्त होने वाली लड़ाई
अमरेन्द्र सुमन
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