Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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बदलाव का सफर

 

बदलाव का सफर


दिल्ली विश्वविद्यालय का सभागार खचाखच भरा हुआ था। मंच पर दो प्रमुख विचारधाराएँ आमने-सामने थीं—अनुराग मेहरोत्रा, एक समाजवादी कार्यकर्ता, जिसने अपना जीवन हाशिए पर खड़े लोगों के लिए समर्पित कर दिया था, और सान्वी राठौर, एक सफल बिजनेसवुमन, जो पूंजीवाद की प्रबल समर्थक थी।

सान्वी ने आत्मविश्वास से कहा—
"पूंजीवाद अवसर देता है, मेहनत करने वालों को आगे बढ़ने की आज़ादी देता है। सवाल यह नहीं कि कोई गरीब क्यों है, बल्कि यह कि वह अपनी हालत सुधारने के लिए क्या कर रहा है?"

अनुराग ने ठहाका लगाया,
"तुम्हें लगता है कि मेहनत ही सब कुछ तय करती है? मेरे पिता एक रिक्शा चालक थे, माँ घरों में बर्तन माँजती थी। मैंने मेहनत की, पढ़ाई की, लेकिन क्या मुझे वही सुविधाएँ मिलीं, जो तुम्हें बचपन से मिलीं?"

सान्वी ने तीखे स्वर में कहा—
"तो क्या अमीरों को दोष देना सही होगा? पूंजीवाद ने ही तुम्हें वह मंच दिया, जिस पर तुम आज खड़े हो।"

अनुराग केवल बहस करने वाला नहीं था। उसने गरीब बच्चों के लिए एक मुफ्त स्कूल खोला था और मजदूरों के हक़ की लड़ाई लड़ रहा था।

लेकिन उसका यह संघर्ष केवल वैचारिक नहीं था—यह व्यक्तिगत भी था।

जब वह दस साल का था, तब उसके पिता बीमार पड़े थे। सरकारी अस्पताल में जगह नहीं थी, और निजी अस्पताल में इलाज बहुत महंगा था। वे सड़क पर ही दम तोड़ गए।

उसी दिन अनुराग ने कसम खाई थी—
"अब और किसी गरीब को मेरी माँ की तरह रोते नहीं देखूंगा।"

उसने अपनी माँ को कई घरों में झाड़ू-पोंछा करते देखा था, वह जानता था कि एक गरीब के लिए सबसे कठिन काम सिर्फ दो वक़्त की रोटी जुटाना ही नहीं, बल्कि उस सम्मान को बचाए रखना भी है, जिसे समाज हर दिन छीनने की कोशिश करता है।

स्कूल की फीस जमा न होने के कारण उसे कक्षा से बाहर निकाल दिया जाता था। टीचर ने ताने दिए थे—
"अगर पढ़ नहीं सकते तो रिक्शा चलाओ अपने बाप की तरह!"

अनुराग ने किताबें खुद खरीदीं, स्ट्रीट लाइट के नीचे पढ़ाई की, और अपनी माँ की आँखों में यह संकल्प देखा कि वह अपने बेटे को ज़रूर आगे बढ़ते देखेगी।
पर यह आसान नहीं था।

जब कॉलेज की फीस भरनी थी, तो माँ ने अपने गहने बेच दिए। एक दिन अनुराग ने उसे किसी से उधार माँगते सुना—
"भैया, अगले महीने तक लौटा दूँगी, बस लड़के की पढ़ाई बंद न हो जाए!"

उस रात अनुराग ने तय कर लिया था कि वह सिर्फ अपने लिए नहीं, बल्कि उन सबके लिए लड़ेगा, जिनकी आवाज़ अक्सर अनसुनी रह जाती है।

कॉलेज के दिनों में उसने देखा कि कैसे एक जूता फैक्ट्री के मज़दूरों को न्यूनतम वेतन तक नहीं मिलता। वे दिन-रात काम करते थे, लेकिन जब हड़ताल की, तो मालिक ने उन्हें काम से निकाल दिया।

अनुराग उनके साथ खड़ा हुआ। उसने नारे लगाए, धरना दिया, और पहली बार उसे यह अहसास हुआ कि सिर्फ भाषण देने से बदलाव नहीं आएगा—लड़ाई लड़नी होगी।

एक दिन पुलिस आई, और उसे बेरहमी से पीटा गया। उसकी माँ जब अस्पताल में उससे मिलने आई, तो उसने आँखों में आँसू भरकर कहा—
"बेटा, तू क्यों लड़ रहा है? ये दुनिया नहीं बदलेगी।"

अनुराग ने उसका हाथ पकड़ा और कहा—
"अगर हर कोई यही सोचता, तो कभी कोई बदलाव नहीं होता, माँ!"

धीरे-धीरे उसने मज़दूर संगठनों के साथ मिलकर कई कंपनियों को न्यायसंगत वेतन देने पर मजबूर किया। वह गरीब बच्चों को शिक्षा देने के लिए एक मुफ्त स्कूल खोलने में भी सफल रहा।

एक कॉर्पोरेट सम्मेलन में, जब सान्वी और अनुराग आमने-सामने आए, तो बहस और तीखी हो गई।

सान्वी ने तर्क दिया—
"अगर तुम्हारी विचारधारा इतनी महान है, तो दुनिया की सबसे सफल अर्थव्यवस्थाएँ पूंजीवादी क्यों हैं?"

अनुराग ने उत्तर दिया—
"अगर पूंजीवाद इतना महान है, तो दुनिया में गरीबी खत्म क्यों नहीं हुई?"

सान्वी ने कहा—
"क्योंकि हर कोई मेहनत नहीं करता!"

अनुराग ने तीखी नज़रें गड़ा दीं—
"मैं इस सच को कैसे भूल सकता हूँ कि मेरी माँ की मजदूरी का मोल उसके आँसुओं से भी कम आँका गया! यह सिर्फ मेरी माँ की कहानी नहीं है, यह हर उस श्रमिक की पीड़ा है, जो अपने श्रम से संपत्ति का अंबार खड़ा करता है, लेकिन खुद फटेहाल रहता है।"

"अगर श्रम का उचित मूल्य मिलता, तो किसी माँ को आँसू बहाने की ज़रूरत नहीं पड़ती। जब मेहनतकश का पसीना किसी की समृद्धि का आधार बने, तो क्या यह न्यायसंगत नहीं कि उसे भी सम्मानजनक जीवन मिले? यह प्रश्न केवल भावनात्मक नहीं, बल्कि सामाजिक और आर्थिक न्याय का है। हमें यह समझना होगा कि जब तक श्रम का मूल्य निर्धारण सिर्फ बाजार की निष्ठुर शर्तों पर होगा और इंसानियत को दरकिनार किया जाएगा, तब तक असमानता बनी रहेगी।"

"इसलिए, हम सिर्फ अपनी पीड़ा नहीं, बल्कि एक न्यायपूर्ण व्यवस्था की मांग कर रहे हैं—जहाँ मेहनत को उसका सही हक मिले, और आँसू उसकी कीमत न चुकाएँ!"

"मेहनत ही सब कुछ होती, तो मेरे रिक्शा चालक पिता मुझसे अधिक सफल होते। तुम एक विशेषाधिकार प्राप्त वर्ग से आती हो, तुम्हारे पास पैसे, रिश्ते और अवसर थे। एक गरीब को सबसे पहले अपनी स्थिति से लड़ना पड़ता है, फिर समाज से।"

सान्वी ने तर्कसंगत उत्तर दिया —
"भावनाओं के ज्वार में बहकर तर्क कमजोर पड़ जाते हैं। तुम कहते हो कि तुम्हारी माँ की मजदूरी का मोल उसके आँसुओं से कम था, लेकिन यह तय करने का आधार क्या होगा? श्रम का मूल्यांकन भावनाओं से नहीं, उत्पादकता और बाज़ार की मांग से होता है।"

"अगर श्रम से ही समृद्धि सुनिश्चित होती, तो हर मजदूर अमीर होता। लेकिन वास्तविकता यह है कि पूँजी, बुद्धिमत्ता और प्रबंधन कौशल के बिना श्रम दिशाहीन होता है। उद्योगपति जोखिम उठाता है, नीतियाँ बनाता है, प्रबंधन करता है—तभी वह धन सृजन कर पाता है। मजदूरी का निर्धारण बाजार के सिद्धांतों से होता है, न कि व्यक्तिगत कष्टों से।"

"अगर तुम श्रमिकों को उनकी मेहनत के हिसाब से अधिक भुगतान चाहते हो, तो उत्पादकता बढ़ाओ, दक्षता लाओ, प्रतिस्पर्धा में आगे बढ़ो। भावनाओं से प्रभावित होकर व्यवस्था को कोसना आसान है, लेकिन आर्थिक सच्चाइयों को समझे बिना कोई भी बदलाव व्यावहारिक नहीं हो सकता।"

"अगर किसी को अपना हक चाहिए, तो उसे अपनी कीमत बढ़ानी होगी—मांगने से कुछ नहीं मिलता, कमाने लायक बनो!"

जैसे ही पूंजीवादी विचारधारा की पक्षधर सान्वी ने अपनी बात खत्म की, सभा में हलचल मच गई। मजदूरों और शोधार्थियों का एक तबका उसकी बात से आक्रोशित था, तो कुछ लोग सोच में पड़ गए। तभी बीच में विवेक खड़े हुए—एक दार्शनिक दृष्टिकोण रखने वाले प्रसिद्ध विचारक, जो दोनों पक्षों के बीच संतुलन बनाने की कोशिश कर रहे थे।

"दोनों पक्षों की बातों में सच्चाई है, मगर अधूरी।"

"अनुराग, तुम्हारा दर्द वास्तविक है। श्रम को उचित मूल्य मिलना चाहिए, क्योंकि अगर श्रमिकों की आँखों में आँसू होंगे, तो समाज की नींव कमजोर होगी। लेकिन, सान्वी, तुम भी गलत नहीं हो। केवल भावनाओं के आधार पर अर्थव्यवस्था नहीं चलती, दक्षता और उत्पादकता भी महत्वपूर्ण हैं।"

"समस्या यह नहीं कि श्रमिक मेहनत नहीं करते, बल्कि यह है कि उन्हें आगे बढ़ने के अवसर समान रूप से नहीं मिलते। अगर केवल उत्पादकता ही मजदूरी का मापदंड होती, तो क्या मालिक और मजदूर एक समान प्रारंभिक सुविधाओं के साथ दौड़ में शामिल होते? क्या सभी को समान शिक्षा, संसाधन और अवसर मिलते हैं?"

"इसलिए, समाधान संघर्ष में नहीं, समन्वय में है। मजदूरी इतनी हो कि श्रमिक का जीवन सम्मानजनक हो, और श्रमिकों को अवसर भी दिए जाएं कि वे अपनी दक्षता और उत्पादकता बढ़ा सकें। पूंजी और श्रम को एक-दूसरे का विरोधी नहीं, बल्कि सहायक बनना होगा। पूंजीवाद यदि समावेशी होगा और समाजवाद यदि व्यवहारिक होगा, तो एक नया संतुलन बनेगा—जहाँ किसी माँ के आँसू उसकी मजदूरी से भारी नहीं होंगे।"

सभा में शांति छा गई। दोनों पक्ष सोचने लगे—क्या लड़ाई से समाधान मिलेगा, या मिलकर नया रास्ता निकालना होगा? संघर्ष अभी खत्म नहीं हुआ था, मगर अब यह केवल टकराव नहीं, बल्कि बदलाव की ओर बढ़ रहा था।

विवेक की बातों ने सान्वी को अंदर तक झकझोर दिया था। वह रातभर करवटें बदलती रही। पूँजीवाद और समाजवाद के इस संघर्ष में सच कहाँ है? क्या वाकई समाधान समन्वय में है? क्या एक आदर्श संतुलन संभव है?

सुबह की हल्की रोशनी कमरे में फैल रही थी, लेकिन सान्वी की आँखों में अब भी रात के सवाल तैर रहे थे।
सान्वी ने विवेक को फोन किया।

"क्या तुम मुझसे मिल सकते हो?"

विवेक, जो अभी-अभी अपनी चाय का पहला घूंट ले रहा था, सान्वी की आवाज़ सुनते ही चौक गया।

"अभी?" उसने हल्की हैरानी से पूछा।

"हाँ, अगर तुम फ्री हो तो…" सान्वी की आवाज़ में एक अजीब सी गंभीरता थी।

विवेक ने घड़ी की ओर देखा। सुबह के सात बज रहे थे। सान्वी आमतौर पर इतनी सुबह फोन नहीं करती थी, खासकर बिना किसी वजह के। वह जानता था कि कुछ तो ऐसा है जो उसे बेचैन कर रहा है।

"कहाँ मिलना है?" उसने सीधा सवाल किया।

सान्वी ने कुछ पल चुप रहकर कहा, "वही जगह… जहाँ हमारी आखिरी मुलाकात हुई थी।"

विवेक को याद आया—पिछली बार वे उस पुराने कॉफी हाउस में मिले थे, जहाँ उनके रिश्ते की कई यादें थीं।

"ठीक है, मैं आधे घंटे में पहुँचता हूँ," उसने बिना ज्यादा सवाल किए जवाब दिया।

फोन कटते ही विवेक की आँखों से नींद उड़ गई। उसके मन में कई सवाल थे—आखिर सान्वी इतनी सुबह क्यों मिलना चाहती थी? क्या ये कोई नई शुरुआत थी या किसी अधूरी कहानी का अंत?

जब वे कॉफ़ी हाउस में मिले, तो बाहर हल्की बारिश हो रही थी। सान्वी खिड़की के बाहर टपकती बूँदों को देख रही थी।

"तुमने कभी सोचा कि हम दोनों इतने अलग होते हुए भी एक-दूसरे को समझते क्यों हैं?" सान्वी ने कप में चम्मच घुमाते हुए पूछा।

विवेक ने उसकी ओर देखा, उसकी आँखों में सवाल थे।
"शायद इसलिए कि हम दोनों विरोधी नहीं हैं, बस अलग रास्तों पर चल रहे हैं।"

सान्वी हल्का सा मुस्कराई,
"क्या सच में? या फिर इसलिए कि कहीं न कहीं, हम एक-दूसरे से जुड़ना चाहते हैं?"

विवेक ने चुपचाप कॉफ़ी का एक घूँट लिया, फिर बोला,
"अगर मैं कहूँ कि कभी-कभी मुझे भी ऐसा लगता है?"

सान्वी की आँखों में एक चमक आई,
"तो फिर, तुमने हमेशा दूरी क्यों बनाए रखी?"

विवेक कुछ पल खामोश रहा। फिर धीमे स्वर में कहा,
"क्योंकि हम दोनों ऐसे किनारे हैं, जो एक-दूसरे को देख सकते हैं, महसूस कर सकते हैं, लेकिन कभी मिल नहीं सकते।"

सान्वी ने ठंडी साँस ली,
"और अगर मैं कहूँ कि कभी-कभी मैं इस दूरी को मिटाना चाहती हूँ?"

विवेक ने उसकी ओर गहरी नज़र डाली,
"तो मैं कहूँगा कि कुछ रिश्ते नाम से नहीं, अहसास से ज़िंदा रहते हैं।"

दोनों के बीच चुप्पी छा गई। बाहर बारिश तेज़ हो गई थी।

सान्वी ने हल्के स्वर में पूछा,
"अगर मैं पूंजीवादी न होती और तुम समाजवादी न होते, तो क्या हम साथ होते?"

विवेक ने हल्की हँसी के साथ कहा,
"अगर 'अगर' पर ज़िंदगी चलती, तो दुनिया में कहानियों के अलावा कुछ न होता।"

सान्वी ने उसके हाथ पर हाथ रखा,
"तो हम क्या हैं, विवेक?"

विवेक ने उसकी ओर देखते हुए कहा,
"हम दो ध्रुवों के बीच का आकाश हैं—कभी करीब, कभी दूर, लेकिन हमेशा एक-दूसरे की तरफ देखते हुए।"

उस रात, जब वे विदा हुए, तो दोनों के दिलों में एक अधूरा संवाद बचा रह गया।

अनुराग ने एक मजदूर संघ के आंदोलन में हिस्सा लिया। वहाँ पुलिस ने लाठीचार्ज कर दिया। अनुराग गंभीर रूप से घायल हो गया।

विवेक अस्पताल पहुँचा और कहा—
"क्रांति संघर्ष से आती है, लेकिन क्या बदलाव के लिए हिंसा ज़रूरी है?"

अनुराग ने दर्द में मुस्कराते हुए कहा—
"कभी-कभी, बदलाव के लिए ज़रूरी नहीं कि कोई बड़ा आंदोलन हो। बस एक सही सोच वाला इंसान भी काफी होता है।"

विवेक ने अनुराग का हाथ थामते हुए कहा—
"और सही सोच वही होती है, जो सबके लिए जगह बनाए।"

"समाजवाद अवसर देता है, पूंजीवाद संसाधन बनाता है, लेकिन असली बदलाव वही लाएगा जो इन दोनों के बीच पुल बना सके।"

सान्वी ने मुस्कराते हुए पूछा—"अगर संतुलन ही हल है, तो यह सफर अब भी जारी है?"

दूर कहीं एक चायवाले की आवाज़ आई—"चाय गरम!"

शायद यह उस आम आदमी की आवाज़ थी, जो अभी भी इस बदलाव का इंतज़ार कर रहा था…

©® अमरेश सिंह भदौरिया



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