धर्म तुला
धर्म तुला पर खड़े हुए
अब न्याय नहीं तौलते—
पलड़े सत्ता के भार से
एकतरफ़ा झुकते हैं,
और न्याय—
बस बहसों के ब्योरे में
तारीख़ों की तरह दर्ज़ रह जाता है।
कभी जहाँ सत्य की जय होती थी,
अब वहाँ मौन की चतुराई है।
शब्दों की मर्यादा
सभाओं के मध्य टूटती है
और न्याय,
राजसी चुप्पी की ओट में
लज्जा का वस्त्र ओढ़े
विलीन होता जाता है।
द्रौपदी का चीर
आज भी खींचा जा रहा है,
मंच भले बदल गए हों—
दर्शक वही हैं
जो आज भी करुणा की चीखों में
मनोरंजन ढूँढ़ते हैं।
धर्मराज
हर घर में बैठा है,
सत्य जानकर भी
शांति के नाम पर
अधर्म का मूल्य चुका रहा है।
दुर्योधन की न्याय-याचना
न्याय नहीं,
अहंकार का आवरण थी।
वह पाँच गाँव नहीं चाहता था—
उसे पूर्ण अधिपत्य चाहिए था,
उसका न्याय
अपमान की चादर ओढ़े
सत्ता के पलड़े में झूलता रहा।
कृष्ण का चक्र
युगों से घूम रहा है—
कभी शब्दों में,
कभी युद्धों में,
तो कभी
अंदर ही अंदर
एक सजग अंतरात्मा में।
अब कृष्ण की बाँसुरी चुप है,
पर सुदर्शन
हर युग की हथेली पर
घूम रहा है
क्योंकि धर्म,
शब्दों से नहीं—
कर्मों से तौला जाता है।
यह युग पुकारता है
कि धर्म केवल
शास्त्रों में नहीं—
संवेदना में है।
जब तक न्याय
निर्बलों की पीड़ा में
गूँजता नहीं—
वह अधूरा है।
अब
हर अपमान पर
भीतर का कोई कृष्ण
उठे—
न केवल चक्र लेकर,
बल्कि संकल्प लेकर
कि अन्याय अब मौन से नहीं—
प्रतिरोध से मिटेगा।
तभी धर्म की तुला
फिर से संतुलन पाएगी।
©®अमरेश सिंह भदौरिया
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