लेबर चौराहा
वो नहीं करता भाषण,
न सोशल मीडिया पर डालता अपनी मेहनत की तस्वीरें।
उसकी ज़िंदगी
जैसे भोर का सूरज—
सिर पर ईंटों की तरह चढ़ता है हर दिन।
लेबर चौराहा
उसका ऑफिस नहीं,
वो चबूतरा है जहाँ
सपने खड़े होते हैं
सस्ती मजदूरी की उम्मीद में।
वो प्रेम नहीं करता शायरी में,
करता है
बच्चे की टूटी चप्पल सिलवाने में,
बिटिया के लिए मेले से चूड़ी लाने में।
उसका प्यार
रोटी के चार टुकड़ों में बंटा होता है
—पर सबसे बड़ा हिस्सा घर भेज देता है।
वो आदमी
कभी मंदिर की सीढ़ियों पर सुस्ताता है,
कभी नाली के किनारे बैठकर
बीड़ी सुलगाता है—
उसकी थकान
कोई नहीं देखता।
उसकी बीवी गाँव में
हर शाम सूरज ढलने तक
आसमान को निहारती है
—क्या आज काम मिला होगा?
लेबर चौराहा
कोई चौराहा नहीं,
ये एक कविता है
जो हर रोज़ चुपचाप लिखी जाती है
—मिट्टी, पसीने और इंतज़ार से।
©®अमरेश सिंह भदौरिया
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