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अपरिभाषित प्रेम

 

अपरिभाषित प्रेम

गाँव से कुछ दूरी पर स्थित एक सरकारी महाविद्यालय। चारों ओर हरियाली, ऊँचे-ऊँचे पेड़, और पुराने खपरैल की छतों वाला वह कॉलेज, जहाँ शिक्षा के साथ-साथ विचारों का भी निर्माण होता था।

रूचि और राघव, दोनों इस कॉलेज में स्नातक के छात्र थे। दोनों ही अंतरमुखी स्वभाव के थे—बहुत ज्यादा बोलते नहीं थे, लेकिन जब बोलते, तो गहरी बातें करते।

रूचि एक साधारण मध्यमवर्गीय परिवार से थी, लेकिन उसमें सोचने-समझने की गहराई थी। वह भीड़ से अलग थी, किसी भी बात को सतही रूप में नहीं लेती थी।

राघव गाँव का ही रहने वाला था—गंभीर, चिंतक और सामाजिक मूल्यों के प्रति सजग। वह किताबें पढ़ने और दुनिया को तर्क की दृष्टि से देखने में विश्वास रखता था।

एक दिन, बारिश के बाद रूचि और राघव अपनी-अपनी किताबें लिए वहाँ पहुँचे। लेकिन आज पढ़ने का मन किसी का भी नहीं था।

बरगद की जड़ों के पास बैठते हुए रूचि ने धीरे से पूछा,
"राघव, क्या सच में ज़िंदगी हमारे बनाए नियमों से चलती है?"

राघव ने सिर उठाकर उसकी ओर देखा। आसमान में बिखरे बादल जैसे उसके मन की उलझनों का प्रतिबिंब लग रहे थे। हल्की मुस्कान के साथ उसने जवाब दिया,
"शायद नहीं, लेकिन हमें समाज के अनुसार ढलना पड़ता है। हर चीज़ आदर्शों से नहीं चलती।"

रूचि ने गहरी साँस ली। उसके चेहरे पर हल्की बेचैनी थी, जैसे वह किसी अनकहे दर्द को छिपाने की कोशिश कर रही हो।

"फिर तो हम हमेशा अधूरे ही रहेंगे," उसने धीमे स्वर में कहा।
"क्योंकि समाज और हमारी भावनाएँ हमेशा एक-सी नहीं होतीं।"

राघव उसकी बात सुनकर थोड़ा असमंजस में पड़ गया।

वह दार्शनिक था, तर्कवादी था। उसने किताबों में पढ़ा था कि समाज की स्वीकृति ही जीवन की दिशा तय करती है। लेकिन आज पहली बार उसे अपने ही विचारों पर संशय हो रहा था।

"क्या तुम किसी विशेष चीज़ की बात कर रही हो?" उसने संजीदगी से पूछा।

रूचि ने सिर झुका लिया। उसके पैरों के पास कुछ सूखे पत्ते पड़े थे, जिन्हें वह अपनी उंगलियों से हौले-हौले हटाने लगी। यह उसकी आदत थी—जब भी वह किसी गहरे भाव को छिपाना चाहती, तो कुछ न कुछ छूने लगती थी।

राघव ने उसकी आँखों में झाँकने की कोशिश की, लेकिन रूचि ने नजरें फेर लीं।

कुछ पल शांत रहे।

बरगद की पत्तियों के बीच से सूरज की रोशनी छनकर आ रही थी, लेकिन हवा में कुछ भारीपन था।

राघव ने महसूस किया कि शायद आज रूचि के शब्दों में कोई छुपा हुआ सच था, कोई ऐसा भाव जिसे वह कह नहीं पा रही थी।

उसका मन किया कि वह रूचि का हाथ पकड़कर कहे—"जो भी सोच रही हो, खुलकर कह दो। हम हमेशा समाज के बनाए ढांचे में ही क्यों सिमटे रहें?"

लेकिन वह चुप रहा।

शायद यह उसके स्वभाव का हिस्सा था—भावनाओं को शब्दों की सीमा में बाँधने से पहले उन्हें भीतर ही भीतर जी लेना।

इसी बीच अचानक बारिश होने लगी....!
बरगद के पत्तों से टपकती बूंदों की आवाज़ अब तेज़ हो गई थी।

रूचि ने गहरी साँस लेते हुए कहा,
"कुछ रिश्ते ऐसे होते हैं, जिनका कोई नाम नहीं होता… लेकिन वे जीवनभर हमारे साथ चलते हैं।"

राघव कुछ कहना चाहता था, लेकिन शब्द गले में ही अटक गए।

आज पहली बार दोनों ने महसूस किया कि उनके बीच कुछ था… कुछ ऐसा, जो परिभाषित नहीं किया जा सकता था।

बरगद के नीचे, बारिश की बूंदों के बीच, एक प्रेम जन्म ले रहा था—अपरिभाषित, अलिखित, लेकिन गहराई से महसूस किया गया प्रेम।

लेकिन उसका इज़हार कभी नहीं हुआ।

क्योंकि कुछ भावनाएँ शब्दों से परे होती हैं…

कॉलेज का आखिरी दिन…
बरगद के नीचे की आखिरी मुलाकात…
वह अंतिम संवाद…

सब कुछ अब स्मृतियों के गलियारे में कहीं धुंधला सा हो चुका था। जीवन की नई राहें अब उन्हें दो विपरीत दिशाओं में ले जा रही थीं।

रूचि के माता-पिता ने उसकी शादी बड़े धूमधाम से कर दी। लड़का शिक्षित था, प्रतिष्ठित था, आर्थिक रूप से संपन्न था। एक आदर्श विवाह, जिसे समाज में हर माता-पिता अपनी बेटी के लिए चाहते हैं।

शादी के बाद रूचि का जीवन सुख-सुविधाओं से भर गया।

एक बड़ा घर, महंगी गाड़ियाँ, एयर-कंडीशंड कमरे, नौकर-चाकर, और हर त्योहार पर कीमती गहनों का उपहार।

लेकिन इस चकाचौंध के बीच एक खालीपन था—एक ऐसा एहसास जिसे शब्दों में बाँधा नहीं जा सकता।

"तुम इतना सोचती क्यों हो, रूचि?" एक दिन उसके पति ने हँसते हुए कहा।
"ज़िंदगी को जियो, सोचो मत। चीजें बहुत आसान होती हैं अगर उन्हें दिल से नहीं, दिमाग से देखा जाए।"

रूचि ने मुस्कुराने की कोशिश की।

वह जानती थी कि उसका पति उसे हर तरह से खुश रखने की कोशिश करता था, लेकिन वह उसकी दुनिया का हिस्सा नहीं थी।

उसकी दुनिया व्यवसाय, लाभ-हानि, सामाजिक प्रतिष्ठा और दिखावे में सिमटी थी।

रूचि ने धीरे-धीरे यह स्वीकार कर लिया कि भावनाओं की गहराइयों की जगह इस दुनिया में नहीं थी।

लेकिन वह अक्सर अकेले में अपने कॉलेज के दिनों को याद करती—बरगद के नीचे की उन सर्दियों की धूप, जब विचारों पर बहस होती थी।

अब बहसें नहीं थीं, सिर्फ़ चुप्पियाँ थीं।

राघव ने उच्च शिक्षा प्राप्त की, लेकिन उसकी राह कठिन थी।

नौकरी की तलाश, सीमित संसाधन, और समाज की अपेक्षाएँ—इन सबके बीच वह खुद को खोता चला गया।

वह चाहता तो प्रतियोगी परीक्षाएँ देकर कोई सुरक्षित करियर चुन सकता था, लेकिन उसकी रुचि तो चिंतन और लेखन में थी।

फिर भी, जीवन केवल विचारों से नहीं चलता।

कुछ वर्षों बाद उसका विवाह सानिया से हुआ।

सानिया संस्कारवान, भारतीय मूल्यों को मानने वाली, और एक व्यवहारिक सोच रखने वाली लड़की थी।

शादी के शुरुआती दिनों में सब ठीक था।

लेकिन धीरे-धीरे, राघव की सीमित आर्थिक स्थिति सानिया को अखरने लगी।

सानिया को कभी-कभी ग़ुस्सा आ जाता,
"तुम इतने प्रतिभाशाली हो, फिर भी हम संघर्ष कर रहे हैं!"

राघव को यह सुनकर गहरी पीड़ा होती।

लेकिन वह जानता था कि यह केवल सानिया की समस्या नहीं थी, बल्कि हर मध्यमवर्गीय व्यक्ति का संघर्ष था—आदर्शों और यथार्थ के बीच की खाई।

धीरे-धीरे, उनके रिश्ते में संवाद कम होने लगे।

राघव अब अपनी किताबों में सुकून ढूँढता, लेकिन किताबें जीवन की असल समस्याओं का हल नहीं थीं।

सानिया को भी यह एहसास था कि राघव उससे प्रेम करता था, लेकिन प्रेम सिर्फ भावना नहीं, वास्तविकता भी होता है।

अब उनके बीच प्रेम कम नहीं हुआ था, पर तकरार बढ़ गई थी।

जब रास्ते अलग हो गए, तो स्मृतियाँ पीछे रह गईं…

रूचि के पास संपन्नता थी, लेकिन भावनात्मक संतुष्टि नहीं थी।
राघव के पास विचार थे, लेकिन जीवन की व्यवहारिकता से संघर्ष था।

दोनों के रास्ते अलग हो चुके थे, लेकिन कहीं न कहीं, उनकी स्मृतियाँ अधूरी थीं।

कभी-कभी रूचि खिड़की के पास बैठी बारिश देखती, तो बरगद के नीचे बैठा राघव याद आ जाता।

कभी-कभी राघव अपनी किताब के किसी पन्ने पर पुराने समय का कोई जिक्र पढ़ता, तो रूचि की आवाज़ कानों में गूँजने लगती।

वे दोनों अपनी-अपनी दुनिया में आगे बढ़ चुके थे, लेकिन मन के किसी कोने में एक सवाल था—

"क्या सच में ज़िंदगी हमारे बनाए नियमों से चलती है?"

बरसों पहले बरगद के नीचे हुए उस संवाद का उत्तर अभी भी अधूरा था…

क्योंकि कुछ रिश्ते अपरिभाषित होते हैं, लेकिन हमेशा हमारे भीतर जीवित रहते हैं।

एक दिन, वर्षों बाद…

गाँव के पुराने बस स्टैंड के पास, वही छोटा-सा चाय का खोखा, जिसकी लकड़ी की बेंचें वक़्त के साथ थोड़ी और घिस गई थीं, लेकिन उनके नीचे दबी स्मृतियाँ अब भी जस की तस थीं। कोने में रखा पुराना रेडियो धीमी आवाज़ में कोई भूला-बिसरा गीत बजा रहा था। हल्की सर्दी में चाय की भाप उठ रही थी, लेकिन उसे पीने वाला कहीं और खोया था।

राघव चुपचाप बैठा था। सामने रखा चाय का कुल्हड़ धीरे-धीरे ठंडा हो रहा था, जैसे कुछ यादें, कुछ अहसास, जो समय के साथ ठहर गए थे।

आज वह यहाँ क्यों आया?

कुछ घंटों पहले वह विश्वविद्यालय के भूतपूर्व छात्र सम्मेलन में था। वर्षों बाद पुराने मित्रों से मिलना हुआ। औपचारिक बातें, कुछ ठहाके, कुछ यादों के पुलिंदे खोले गए। लेकिन जैसे ही कार्यक्रम समाप्त हुआ, वह भीड़ से अलग हो गया। उसके कदम अनायास ही इस चाय के खोखे तक आ पहुँचे—जहाँ कभी वह और उसके साथी बैठकर बहस किया करते थे।

अर्थशास्त्र, दर्शन, समाज… और कभी-कभी प्रेम पर भी।

वही जगह, वही ठंडा पड़ता कुल्हड़, वही अहसास—बस समय बदल चुका था।

और उन्हीं दिनों में, अक्सर, एक चेहरा भी यहाँ दिखता था—रूचि।

वर्षों पहले वह इसी चाय की दुकान पर बैठती थी—अंतरमुखी, शांत, लेकिन उसकी आँखें बोलती थीं। वह कम शब्दों में बहुत कुछ कह जाती थी। उसकी खामोशी में एक अजीब-सी गहराई थी, जो कभी राघव को उलझाती, कभी आकर्षित करती।

सम्मेलन में जाते वक्त उसने नहीं सोचा था कि अतीत की कोई परछाईं यहाँ उसका इंतज़ार कर रही होगी।

तभी पीछे से किसी ने पुकारा—"राघव?"

उसने सिर उठाया…

रूचि सामने खड़ी थी।

वही चेहरा, वही गहरी आँखें—लेकिन अब उनमें समय की अनकही कहानियाँ दर्ज थीं। जैसे वर्षों की दूरी ने कुछ शब्द छीन लिए थे, लेकिन उनकी प्रतिध्वनि अब भी मौजूद थी।

सालों बाद…

उसके माथे की बिंदी, पारंपरिक साड़ी, और आँखों में वही पुरानी गहराई। चेहरा परिपक्व हो चुका था, लेकिन नज़रों में अब भी वही भावनाएँ तैर रही थीं, जो कभी कॉलेज के दिनों में अनकही रह गई थीं।

कुछ क्षण के लिए समय ठहर-सा गया।

एक अधूरी बातचीत, जो अब पूरी हो रही थी…

रूचि हल्के से मुस्कुराई, "कैसे हो, राघव?"

राघव ने भी मुस्कुराने की कोशिश की, "ठीक हूँ… और तुम?"

"सब कुछ है… लेकिन फिर भी कुछ अधूरा-सा लगता है।"

राघव ने गहरी साँस ली, जैसे उसने इस प्रश्न का उत्तर कई बार खुद से पूछा हो।

"हम्म… लेकिन शायद यही ज़िंदगी है। हम हमेशा कुछ खोते हैं, कुछ पाते हैं।"

रूचि ने चाय का प्याला उठाया, हल्के से घूंट भरा, फिर गहरी गंभीरता से बोली—
"अगर हम कॉलेज के दिनों में अपने मन की बात कह पाते, तो क्या हमारी ज़िंदगी अलग होती?"

राघव कुछ देर चुप रहा।

क्या सच में अलग होती?

अगर वे एक-दूसरे से प्रेम स्वीकार कर लेते, तो क्या वे उस प्रेम को निभा पाते?

या फिर ज़िंदगी उन्हें किसी और मोड़ पर वैसे ही छोड़ देती, जैसे आज छोड़ चुकी थी?

राघव ने हल्की मुस्कान के साथ कहा—
"हो सकता है… लेकिन तब भी हमें समाज के हिसाब से जीना पड़ता।"

"क्या हर प्रेम परिभाषित होना ज़रूरी है?"

रूचि की आँखें हल्की नम हो गईं।

"तो क्या हर प्रेम को परिभाषित होना ज़रूरी है, राघव?"

राघव ने धीरे से सिर हिलाया, जैसे इस प्रश्न का उत्तर वह बरसों पहले जान चुका था।

"नहीं… कुछ प्रेम हमेशा अपरिभाषित ही रहते हैं।"

उनके बीच फिर एक गहरी चुप्पी छा गई।

बस स्टैंड पर गाड़ियों की हलचल थी, लोगों की आवाजाही थी, लेकिन उनके भीतर एक अजीब-सी शांति थी—एक शांत तूफान, जो बरसों से दबा हुआ था।

चाय ठंडी हो चुकी थी।

जैसे उनके बीच के कुछ अहसास भी...

दो रास्ते, दो दुनिया… लेकिन एक अहसास

रूचि ने धीरे से अपनी साड़ी को ठीक किया, राघव ने किताबें समेटीं।

वे दोनों उठ खड़े हुए।

कोई विदाई का शब्द नहीं, कोई औपचारिकता नहीं…

बस एक नज़र, जिसमें बीते वर्षों की अधूरी बातें थीं।

फिर वे अपने-अपने रास्ते चले गए…

शायद हमेशा के लिए।

लेकिन वे जानते थे कि…

कुछ प्रेम समय के दायरे में बंधकर भी अमर रहते हैं।

कुछ प्रेम अधूरे रहकर भी पूर्ण हो जाते हैं।

कुछ प्रेम अपरिभाषित होकर भी जीवन का हिस्सा बने रहते हैं।

©®अमरेश सिंह भदौरिया

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