अनकही वेदना
“प्रेम केवल दो हृदयों के बीच का आकर्षण नहीं, बल्कि आत्मा का एक गहन मिलन है। जब यह मिलन किसी कारणवश अधूरा रह जाता है, तो मन में एक खालीपन घर कर जाता है। यह अधूरी प्यास कभी सामाजिक बंधनों के कारण, कभी समय की विडंबना में, तो कभी परिस्थितियों की मजबूरी में रह जाती है। जो प्रेम सजीव होकर भी पूर्णता को प्राप्त नहीं कर पाता, वह व्यक्ति के जीवन में एक अनकही वेदना छोड़ जाता है।”
राधा की भी कुछ ऐसी ही हालत थी, उसकी आँखों में नींद नहीं थी, केवल प्रतीक्षा थी—एक अजीब सी, घुटन भरी प्रतीक्षा। हर रात वह करवटें बदलती, अपने ही हाथों से खुद को सहलाती, लेकिन उस स्पर्श में वह मिठास कहाँ थी जो रामेश्वर के होने से आती थी?
"क्या मैं सिर्फ एक शरीर हूँ?"—कभी-कभी वह खुद से पूछती।
"या प्रेम केवल मन का बंधन है?"
अगर प्रेम सिर्फ मन से किया जा सकता, तो यह बेचैनी क्यों थी? यह अनदेखी प्यास क्यों थी, जो न जीने देती थी, न मरने?
कभी-कभी वह दरवाजे पर खड़ी हो जाती, हवा उसके खुले बालों को छूकर गुजरती, लेकिन यह हवा अब उसे राहत नहीं देती थी।
"रामेश्वर, मैं तुम्हारी याद में केवल आँसू ही नहीं बहा सकती। मैं एक जीती-जागती स्त्री हूँ, मेरी अपनी भूख है, मेरी अपनी प्यास है!"
पर यह बात वह किससे कहती? यह दर्द सुनने वाला कौन था? गाँव की औरतें उसे ताने देतीं—
"तुम्हारा आदमी शहर गया है, खूब पैसे कमाएगा।"
पर क्या कोई उससे पूछता कि पैसा आए न आए, लेकिन यह खाली बिस्तर कब भरेगा? यह अधूरी बाँहें कब पूरी होंगी?
राधा ने कई बार सोने की कोशिश की, लेकिन जब बिस्तर ठंडा हो, तकिया अकेली हो, और देह सिहर रही हो, तो नींद कहाँ आती है?
उसका मन करता कि कोई उसे कसकर पकड़ ले, उसे महसूस करे, उसे अपने स्पर्श से पूरा कर दे। लेकिन वहाँ कोई नहीं था।
वह खाट पर चुपचाप बैठी रही, अपने घुटनों में सिर छुपाकर।
"क्या किसी से कह सकती हूँ कि मैं अपने पति के लिए तरस रही हूँ? लोग क्या कहेंगे?"
शायद यही सोचकर वह खुद को औरतों की तरह सिर्फ प्रेम की प्यासी दिखाने लगी, लेकिन भीतर कहीं उसकी देह भी तड़प रही थी।
रामेश्वर की चिट्ठियाँ आतीं—
"प्रिय राधा,"
जब भी आँखें बंद करता हूँ, तुम्हारा चेहरा मेरे सामने आ जाता है। तुम्हारी हँसी, तुम्हारी चूड़ियों की खनक, तुम्हारे स्पर्श की गर्मी—सबकुछ यहाँ इस परदेश में कितना अधूरा लगता है।
राधा, जब पहली बार इस शहर आया था, तो लगा था कि तुम्हारे बिना भी जी लूँगा। पर जैसे-जैसे दिन बीतते गए, यह एहसास होने लगा कि मैंने यहाँ सिर्फ धन कमाया है, लेकिन अपने सुख और चैन को खो दिया है।
रातों को जब कमरे में अकेला होता हूँ, तो खिड़की से आती हवा में तुम्हारी साँसों की खुशबू ढूँढ़ता हूँ। तकिए पर सिर रखते ही तुम्हारी बाहों की नर्माहट याद आती है। कभी-कभी अनजाने में ही हाथ आगे बढ़ जाता है, तुम्हें छूने के लिए... और फिर एकदम से सच सामने आ जाता है—तुम यहाँ नहीं हो।
राधा, तुम ही बताओ, क्या प्रेम सिर्फ शब्दों से जिया जा सकता है? क्या कोई आग बिना तपे बुझ सकती है? राधा, तुम्हारे बिना मैं अधूरा महसूस करता हूँ। तुम्हारी बाँहों की वह जगह जहाँ मेरा सिर सुकून से टिकता था—क्या वह भी सूनी है?
अब और इंतजार नहीं होता। बहुत सह लिया यह विरह, बहुत सह लिए सूने दिन और जलती रातें। मैं लौट रहा हूँ, राधा। इस बार सिर्फ तुम्हारे लिए, तुम्हारी बाहों के लिए, तुम्हारी मुस्कान के लिए।
बस कुछ ही दिनों में... फिर से तुम्हारा हो जाऊँगा।
तुम्हारा, सिर्फ तुम्हारा
रामेश्वर
राधा पत्र पढ़ती और सोचती—"क्या सच में? अगर तुम अधूरे हो तो मैं क्या हूँ? क्या तुम मेरी तरह रातभर तड़पते हो? क्या तुम्हारा भी शरीर मेरी तरह सिहरता है?"
पर यह बातें पत्रों में नहीं लिखी जातीं। चिट्ठियाँ सिर्फ प्यार की मीठी बातों तक सीमित होती हैं, वे उस आग को नहीं बयान कर सकतीं, जो किसी स्त्री के भीतर जल रही हो।
जब उसने सुना कि रामेश्वर लौट रहा है, तो उसका मन बल्लियों उछलने लगा। उसने खुद को आईने में देखा—काजल लगाया, लाल साड़ी पहनी, खुद को ठीक से संवारा।
"आज मेरी तपस्या पूरी होगी। आज मेरी बाँहें फिर से भरेंगी, आज मेरी प्यास बुझेगी!"
वह दरवाजे पर खड़ी थी। उसकी आँखें पगडंडी पर टिक गई थीं, जहाँ से उसका प्रियतम आने वाला था।
और फिर...
रामेश्वर आया।
पर यह वही रामेश्वर नहीं था। उसकी चाल थकी हुई थी, उसकी आँखों में कोई चमक नहीं थी। उसने राधा को देखा, मुस्कुराया, लेकिन वह मुस्कान बुझी-बुझी थी।
राधा ने उसका हाथ थामा। वह स्पर्श अब ठंडा था।
"इतनी देर क्यों लगा दी, रामेश्वर?"—उसकी आवाज़ काँप गई।
रामेश्वर ने धीमे से कहा—"कमाने गया था, तुम्हारे लिए!"
राधा के होंठ कांपे।
"कमाने गए थे, लेकिन मैं तो यहाँ घुट रही थी। मैं तो तुम्हारे बिना अधूरी हो गई थी। तुमने कभी सोचा कि मेरी देह, मेरा मन, मेरी आत्मा तुम्हारी आहट के बिना कितनी प्यास से तड़पी होगी?"
रामेश्वर ने उसे बाँहों में भर लिया, लेकिन यह वही आलिंगन नहीं था, जिसे राधा ने वर्षों तक महसूस करने की कल्पना की थी।
उसने आँखें बंद कीं।
वर्षों की प्रतीक्षा, वर्षों की आग, वर्षों की पीड़ा—अब जाकर बुझ रही थी। लेकिन क्या यह तृप्ति थी या सिर्फ एक आदत?
राधा नहीं जानती थी।
वह सिर्फ इतना जानती थी कि प्रेम लौट आया था, लेकिन वह प्रेम अब पहले जैसा नहीं था। उसकी प्यास अब भी अधूरी थी।
©®अमरेश सिंह भदौरिया
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