| 12:12 PM (5 hours ago) |
हास्य व्यंग्य — नेता जी की होली
ग्रामवासियों के लिए यह कोई साधारण होली नहीं थी। इस बार रंगों के संग चुनावी समीकरण भी घुला हुआ था। गाँव के चौपाल पर मंच सजा था, ढोलक की थाप के बीच जयकारे लग रहे थे—"नेता जी अमर रहें! विकास पुरुष अमर रहें!"
नेता जी, श्वेत कुर्ता-पाजामा धारण किए, आँखों पर सुनहरी फ्रेम का चश्मा सजाए, लोकतंत्र के प्रतिनिधि से अधिक, एक कुशल नायक प्रतीत हो रहे थे। उनके अनुचर पुष्प-वृष्टि कर रहे थे, मानो वे किसी रण के विजेता हों।
नेता जी ने मंच संभालते ही माइक सम्हाला, स्वर में वही चुनावी माधुर्य, जो केवल जनता के बीच ही उत्पन्न होता है।
"माताओं, बहनों, भाईयो और नवयुवकों!"
(सभा में करतल ध्वनि गूँज उठी, मानो जनता आश्वासनों की वर्षा के लिए आतुर हो।)
"आज इस पावन अवसर पर, जब गुलाल की फुहारें आसमान को रंग रही हैं, जब हृदय उमंग से पुलकित हैं, जब स्नेह और सौहार्द के रंग आपस में मिलकर एक नई सृष्टि का निर्माण कर रहे हैं, तब मैं आपके समक्ष एक संकल्प लेकर उपस्थित हुआ हूँ।"
"इस गाँव की धरती मेरे लिए केवल मिट्टी नहीं, माँ के चरणों की धूल है। मेरा ध्येय सदा आपके उत्थान में रहा है, और मैं वचन देता हूँ कि यदि आप मुझ पर पुनः विश्वास करें, तो यह गाँव विकास की नई गाथा लिखेगा। सुदृढ़ सड़कों से लेकर शिक्षा के नए मंदिरों तक, हर घर में जल, हर द्वार पर उजाला, हर हाथ में रोजगार होगा!"
(सभा में से एक बुजुर्ग फुसफुसाए—"पिछली बार भी यही कहा था, पर विकास की गंगा हमारे खेतों तक तो नहीं पहुँची!")
नेता जी ने जरा गला खंखारकर
पुनः वचनधारा बहाई—
"मैं जानता हूँ, कुछ विपक्षी मित्र भ्रम फैला रहे हैं कि कार्यों में विलंब हुआ। परंतु क्या हमने मिलकर प्रयास नहीं किए? और यदि कहीं कोई कमी रह गई, तो क्या हम उसे भविष्य में पूर्ण नहीं कर सकते?"
(गाँव का छुट्टन पीछे से मुस्कुराया—"बिलकुल नेताजी! वादे हमेशा भविष्य के लिए ही होते हैं!")
अबकी बार नेता जी ने जनता के विश्वास को फिर से संजोने के लिए एक नया संकल्पनादान (व्यवहारिक क्रियान्वयन से अधिक, केवल विचारों का वितरित किया जाना।) दिया—
"मैं घोषणा करता हूँ कि यदि जनता मुझे पुनः अवसर प्रदान करती है, तो अगले वर्ष होली महोत्सव के लिए सरकारी सहायता कोष स्थापित किया जाएगा, जिसमें प्रत्येक परिवार को विशेष अनुदान प्राप्त होगा। हम इस पर्व को केवल रंगों तक सीमित नहीं रखेंगे, बल्कि इसे एक सांस्कृतिक महाकुंभ बनाएँगे!"
सभा में उल्लास था, परंतु जनता की चतुराई भी पराकाष्ठा पर थी। किसी ने आगे बढ़कर नेता जी को एक कटोरी ठंडाई भेंट कर दी। नेताजी ने पहले संकोच किया, फिर उपस्थित कैमरों को देखते हुए सहर्ष स्वीकार कर लिया।
"भाइयो, होली स्नेह और विश्वास का पर्व है, मैं इसे सहर्ष स्वीकार करता हूँ!"
(सभा में तालियों की गड़गड़ाहट!)
परंतु कुछ ही क्षणों में सुर और शब्दों का समीकरण बदलने लगा। भांग मिश्रित ठंडाई का प्रभाव नेताजी पर प्रकट होने लगा। नेत्र अर्ध-निमीलित हुए, मुख से निकले वचन अर्थ और व्याकरण के बंधन से मुक्त होने लगे।
"मित्रों, यह गाँव... यह गाँव... मेरा नहीं, तुम्हारा है... नहीं, मेरा ही है... अरे नहीं, यह तो हमारा है...!"
सभा ठहाकों से गूँज उठी। कुछ देर पूर्व गंभीर मुद्रा में खड़े नेता जी अब गाँव के वृद्ध श्यामलाल जी को गले लगाते हुए कह रहे थे—
"बाबा, अबकी बार आप चुनाव लड़ो, मैं प्रचार करूँगा!"
गाँव का छुट्टन मुस्कुराकर चिल्लाया—"नेता जी, अबकी बार...?"
नेता जी ने हाथ हिलाते हुए कहा—"अबकी बार... जो भी आए, उसका भला हो!"
इसी बीच किसी ने आगे बढ़कर नेता जी पर रंग डाल दिया। किंतु यह कोई साधारण रंग नहीं था—यह काले रंग का घोल था, जिसमें जनता के आक्रोश की स्पष्ट झलक थी।
नेता जी चौंक गए। उनके अनुचर हरकत में आए, परंतु जनता ठहाके लगा रही थी। किसी ने पीछे से व्यंग्य किया—
"नेता जी, वादों का रंग उड़ता नहीं, यह हर बार गाढ़ा होकर उभरता है!"
अब नेताजी की स्थिति विकास योजनाओं की तरह धुँधली हो चुकी थी।
संध्या होते-होते होली समाप्त हो गई। रंग धुल गए, गुझिया समाप्त हो गई, और नेता जी के भाषण के वचन भी तिरोहित हो गए।
नेता जी को जब होश आया, तो उन्होंने सबसे पहला प्रश्न किया—
"कुछ अनुचित तो नहीं कहा?"
अनुचरों ने सिर झुकाया, फिर एक मुस्कान के साथ उत्तर दिया—
"नेता जी, आज पहली बार बिना भाषण लिखवाए आपने सच बोला!"
नेता जी ने माथा पकड़ लिया।
गाँववाले ठहाके लगा रहे थे। इस बार होली ने जनता और नेता के बीच का असली रंग दिखा दिया था।
अबकी बार चुनाव में कौन जीतेगा, यह तो समय बताएगा, लेकिन इतना अवश्य स्पष्ट था कि जनता अब केवल वादों के गुलाल से नहीं रंगने वाली!
©® अमरेश सिंह भदौरिया
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