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प्रेम का पहला प्रभाव

 
प्रेम का पहला प्रभाव

स्त्री व पुरुष के मध्य प्रेम होने के सात चरण होते है। प्रेम होने के सात चरण में पहला आकर्षण, दूसरा ख्याल, तीसरा मिलने की चाह, चौथा साथ रहने की चाह, पांचवाँ मिलने व बात करने के लिए कोशिश करना, छठवाँ मिलकर इजहार करना, सातवाँ साथ जीवन जीने के लिए प्रयत्न करना व अंत में जीवनसाथी बन जाना।
जीवन की असारता प्रेम की विफलता का फल है। प्रेम जब विफल होता है तो जीवन प्रयोजनहीन मालूम होने लगता है। प्रेम जब सफल होता है, तो जीवन सार बन जाता है। प्रेम के सफल होने पर जीवन एक सार्थक, कृतार्थता और धन्यता में परिणित हो जाता है।
प्रेम हृदय और मन को परे तौर पर घेरे रहता है। इस स्थिति में दोनों देह अथवा मन से किसी कारणवश पृथक् रहते हैं, पर उनमें प्रेम के कारण आन्तरिक सम्बन्ध बना रहता है और वे इच्छा न रखते हुए भी एक दूसरे को बराबर याद करते रहते हैं। दोनों हृदयों में प्रेम का स्रोत बहता रहता है। प्यार को अलग-अलग तरह से परिभाषित किया जा सकता है परन्तु समझने वालों के लिए प्यार के मायने अलग-अलग होते हैं। कोई हवस को प्यार समझता है तो कोई त्याग को प्यार समझता है किसी की नजर में प्यार जिम्मेदारी है तो किसी की नजर में प्यार चिंता है। कहने का मतलब है आज लोग स्वार्थ के नजरिए से ही प्यार को परिभाषित करते हैं किसी लिए कुछ किया तो वो प्यार है नही किया तो प्यार नही है। 
इस बात (प्रेम) को एक उदाहरण द्वारा और बेहतर ढंग से समझ सकते हैं.....
जब हम किसी शान्त सरोवर में एक कंकड़ फेंकते हैं तो परिणाम स्वरूप स्थिर और शान्त जल में स्पंदन होता है, स्पंदन से उतपन्न हुई लहरें शोर करने लगती हैं। शोर करना लहरों की प्रकृति है। यह शोर दूर किनारों पर जाकर टकराता है, कुछ क्षण पश्चात कम पड़ता है और समाप्त हो जाता है। ऐसा क्यों? क्योंकि किनारे अविचल हैं, स्थिर हैं, समाधिस्थ हैं। अब आप विचार करें पहले और बाद की स्थिति में जो परिवर्तन हुआ उसे प्रेम की प्रथम अनुभूति के नाम से जाना जाता है। यही प्रेम की पहली अनुभूति संवेदनशील हृदय को स्पंदित करती है ठीक उसी सरोवर की तरह। यही क्षण परमानन्द की अनुभूति का होता है। आनन्द ऊर्जा का अक्षय स्रोत है। जिसके हृदय में आनन्द की जितनी बड़ी अनुभूति है वह उतनी बड़ी उर्जा का अधिपति है। हृदय में जब भावनाओं का ज्वार उमड़ता है तो हृदय की वही स्थिति होती है जो सरोवर के शान्त और स्थिर जल को कंकड़ी के प्रथम स्पर्श से। जल में तरंगें उठती हैं, तरंगों का समूह लहरों को जन्म देता है। लहरें आन्दोलित होती हैं, और वेगवती होकर किनारों से टकराती हैं। कुछ यही स्थिति प्रेम में जब अहसासों का ज्वार उमड़ता है तो हृदय की होती है, जिसे प्रेम का पहला प्रभाव (First impression of love) कहा जाता है। अभी सब कुछ ऊपरी  सतह पर ही हो रहा है, गहराई से इसका कोई सरोकार नहीं है, न हृदय की, न ही सरोवर की। 
विचारणीय प्रश्न यह है कि जब कंकड़ ने सरोवर की सतह को स्पर्श किया तो जो अनुभूति सरोवर को हुई वह कंकड़ के पास थी.....? जैसे.....स्पंदन.....लहरें.....उन्माद.....किनारों को दरेरने की उद्विग्नता आदि। अगर कहें कि हाँ, तो एक तर्क उठता है कि......क्या कंकड़ ये सब पहाड़ में भी उत्तपन्न कर सकता है? क्या रेगिस्तान में भी सम्भव है? तो उत्तर बिल्कुल साफ है कि नहीं। कारण स्पष्ट है कि पहाड़ का हृदय कठोर है, अतः वहाँ स्पंदन सम्भव नहीं है। रही बात दूसरे विकल्प रेगिस्तान की तो वह हृदयहीन है। प्रेम की उत्पत्ति तो केवल सरस हृदय में ही सम्भव है, जहाँ संवेदना है। अतः इन दोनों तथ्यों से स्वतः सिद्ध हो जाता है कि ये सब कंकड़ के पास नहीं था। फिर प्रश्न उठता है कि ये सब कहाँ से आया? तो तर्क यही ठहरता है कि यह सब सरोवर के पास पहले से ही था। अब फिर प्रश्न उठता है कि जब ये सब सरोवर के पास पहले से ही था तो इसका प्रभाव पहले क्यों नहीं दिखाई पड़ा? तो उत्तर यह है कि ये सब के कुछ सरोवर के हृदय में प्रसुप्त अवस्था में था। तो फिर प्रश्न उठता है कि कंकड़ ने क्या किया? जी हाँ कंकड़ ने केवल प्रसुप्त अवस्था से जाग्रत करने का कार्य किया है।
क्या इसे ही प्रेम कहते हैं? जी नहीं। फिर आप पूछेंगे कि ये क्या है? इसे किस नाम से पुकारा जाए? तो आपके प्रश्न का उत्तर इस प्रकार दिया जा सकता है....! यह प्रेम की मंजिल का पहला उपक्रम है, पहला पायदान है। अभी प्रेम के बीज ने असहास की जमीन को छुआ भर है। जिस प्रकार किसी बीज में वृक्ष की पूरी परिकल्पना छुपी होती है। जैसे अंकुरण, जड़, तना, नवीन कोंपल, पुष्प और फिर बीज, जो अभी संभाव्य है वर्तमान नहीं। जैसे बीज को अंकुरित होने के लिए नमी, उष्णता और आवश्यक उर्वरता से युक्त जमीन का होना जरूरी है, साथ ही बीज में अनुकूल अंकुरण की  सामर्थ्य भी होनी आवश्यक है। इतने के बाद भी बीज में आत्मबलिदान का स्वयंस्फूर्त साहस। इसके अभाव में तो वृक्ष की पूरी परिकल्पना ही व्यर्थ हो जाती है। 
कुछ यही स्थिति हृदय में प्रेमरूपी बीज के अंकुरण की होती है।

©®अमरेश सिंह भदौरिया

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