●●●तात्विक समीक्षा●●●
तत्वों की कसौटी पर ‘देशद्रोही का देशप्रेम’
किसी भी रचनाकार को अपने समय से मुक्त हो पाना बहुत कठिन होता है। ये बात तब और भी दुरूह हो जाती है जब ऐतिहासिक तथ्यों से प्राप्त साक्ष्यों के आधार पर कुछ लिखने की हो। उपन्यास विधा में हम अपने जनपद के वरिष्ठ रचनाकार धर्मनारायण पाण्डेय ‘धर्मेश’ जी जो हृदय से कवि, मस्तिष्क से प्रखर चिंतक और जीवन से अध्यापक हैं, को कहाँ पाते हैं? यह जानने के लिए हमें उपन्यास विधा के उद्भव एवं विकास के कालक्रम को संक्षिप्त रूप से देखना पड़ेगा।
हिंदी साहित्य में मौलिक उपन्यासों की परंपरा का सूत्रपात करने का श्रेय आधुनिक हिंदी गद्य साहित्य के जनक भारतेन्दु हरिश्चन्द्र जी को जाता है। उसके पहले जो भी उपन्यास लिखे हुए मिलते हैं वह अनुदित कहे जा सकते हैं। हिंदी साहित्य का पहला प्रामाणिक मौलिक उपन्यास लाला श्रीनिवासदास का ‘परीक्षा गुरु’ माना जाता है।
हिंदी साहित्य में उपन्यास विधा का वास्तविक विकास मुंशी प्रेमचन्द युग में हुआ है। स्वयं प्रेमचन्द जी ने एक दर्जन उपन्यासों की रचना की है। ‘रूठी रानी’ मुंशी प्रेमचन्द जी का एक ऐतिहासिक उपन्यास है, जो पहले उर्दू में लिखा गया और फिर हिंदी में। इसका प्रकाशन वर्ष १९०७ ई० है। यह कहानी है जैसलमेर के रावल लूणकरण की पुत्री उमादे की है।
हिंदी का प्रथम प्रामाणिक ऐतिहासिक उपन्यास ‘बाणभट्ट की आत्मकथा’ आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी रचित एक ऐतिहासिक हिन्दी उपन्यास है। इसका प्रकाशन वर्ष १९४६ ई० में हुआ था।
हिंदी साहित्य में उपन्यास शब्द का प्रथम प्रयोग
हिंदी साहित्य में उपन्यास शब्द के प्रथम प्रयोग के संदर्भ में गोपाल राय लिखते हैं कि–“हिन्दी में नॉवेल के अर्थ में उपन्यास पद का प्रथम प्रयोग १८७५ ई० में हुआ।”
ऐतिहासिक उपन्यास
ऐतिहासिक उपन्यास में किसी देश अथवा प्रदेश विशेष के किसी ऐतिहासिक काल-खण्ड का किसी कथा के माध्यम से चित्रण किया जाता है। इतिहास भी यही कार्य करता है परन्तु उसमें किसी कथा को माध्यम नहीं बनाया जाता। इस प्रकार दोनों एक दूसरे से सम्बद्ध होते हुए भी पृथक-पृथक हैं। “इतिहास” का अर्थ है– “यह ऐसा हुआ”।
ऐतिहासिक उपन्यासों के श्रेणी में जो एक बात मैं देख पाता हूँ वह यही कि जो भी सर्वाधिक चर्चित उपन्यास रहे उनमें नायिका प्रधान ज्यादा रहे हैं। चाहे वह हजारीप्रसाद द्विवेदी का उपन्यास ‘बाणभट्ट की आत्मकथा’ हो या मुंशी प्रेमचन्द जी का ‘रुठी रानी’ हो। इसी क्रम में वृंदावनलाल वर्मा का ‘मृगनयनी’ हो। सभी में नायिका प्रधान होने की बात समान रूप से पायी जाती है। इसमें ‘धर्मेश’ जी ने परम्परा से अलग मार्ग का अनुसरण करते हुए अपनी रचना को नायक प्रधानता पर चित्रित किया है।
उपन्यास के तत्व
उपन्यास के तत्वों के विषय में विद्वानों में मतैक्य का अभाव रहा है। कुछ विद्वानों ने इसके पाँच तत्व स्वीकार किए हैं, कुछ के अनुसार छह तत्व होने चाहिए और कुछ के अनुसार इनकी संख्या आठ होनी बताई गई है। मुख्य रूप से उपन्यास के छह तत्व स्वीकार किए जा सकते हैं, शेष तत्वों का समावेश भी इन्हीं के अंतर्गत हो जाता है।
उपन्यास के निम्नलिखित छह तत्व इस प्रकार हैं– कथावस्तु, पात्र एवं चरित्र-चित्रण, संवाद, भाषा-शैली, देशकाल और वातावरण, उद्देश्य। उपन्यास-चित्रण में उपन्यास में वर्णित मूल समस्याओं के कारणों व उनके उपायों को स्पष्ट किया जाता है। कथावस्तु का संक्षिप्त परिचय देते हुए, भाषा तथा वर्णन शैली का ज्ञान दिया जाता है।
कथावस्तु या कथानक
जिस घटनाक्रम या कथा के आधार पर उपन्यास की रचना की जाती है, उसे उस उपन्यास की कथावस्तु कहा जाता है। कथावस्तु की श्रेष्ठता का आधार उसकी–(i) सरलता, (ii) सरसता, (iii) गठन सम्बन्धी सुसम्बद्धता, (iv) जिज्ञासामूलकता, (v) प्रभावोत्पादकता, (vi) शीर्षक आदि गुणों को बताया गया है। कथावस्तु की श्रेष्ठता सम्पूर्ण उपन्यास को श्रेष्ठ बनाने में सहायक होती है। इसके अतिरिक्त उपन्यास का उपयुक्त शीर्षक भी कथावस्तु के प्रभाव एवं उद्देश्य पर प्रकाश डालता है।
किसी उपन्यास के विकासक्रम के चार आधार सुनिश्चित किए गए हैं– (i) आरम्भ, (ii) मध्य, (iii) चरम सीमा, (iv) उपन्यास का अन्त।
ऐतिहासिक उपन्यास, उपन्यास साहित्य की वह विधा है जिसमें किसी भी कालखंड विशेष की प्रख्यात् कथा का चित्रण हो। वैसे तो किसी भी कालखंड विशेष का चित्रण ऐतिहासिक उपन्यास हो सकता है। अतः ये बात पूर्णरूपेण सत्य है कि ‘धर्मेश’ जी का उपन्यास ‘देशद्रोही का देशप्रेम’ मुंशी प्रेमचन्द, हजारीप्रसाद द्विवेदी, जैनेन्द्र कुमार, वृंदावनलाल वर्मा, अमृतलाल नागर और इलाचन्द्र जोशी जैसे वरेण्य ऐतिहासिक उपन्यासकारों की समृद्ध परंपरा को आगे बढ़ाने का काम करता है। इस उपन्यास की कथावस्तु पूर्व मध्यकाल के सुल्तान वंश में ख़िलजी वंश के शासनकाल के समय की है। ख़िलजी वंश ने १२९० से १३२० ई० तक राज्य किया। दिल्ली के ख़िलजी सुल्तानों में अलाउद्दीन ख़िलजी ने (१२९६-१३१६ ई०) तक शासन किया था। धर्मनारायण पाण्डेय ‘धर्मेश’ जी के उपन्यास ‘देशद्रोही का देशप्रेम’ का मूल कथानक राजस्थान के दुर्ग चित्तौड़गढ़ से सम्बद्ध है, जो बेहद सशक्त है। इतिहासकारों के मत से १२०६ से १५२६ तक भारत पर शासन करने वाले पाँच वंश के सुल्तानों के शासनकाल को दिल्ली सल्तनत या सल्तनत-ए-हिन्द/सल्तनत-ए-दिल्ली कहा जाता है। ये पाँच वंश थे– गुलाम वंश (१२०६ - १२९०), ख़िलजी वंश (१२९०- १३२०), तुग़लक़ वंश (१३२० - १४१४), सैयद वंश (१४१४ - १४५१), तथा लोदी वंश (१४५१ - १५२६)। इनमें से पहले चार वंश मूल रूप से तुर्क थे और आख़िरी अफगान था। सन् १३०३ ई० में अलाउद्दीन ख़िलजी ने इस दुर्ग पर विजय प्राप्त की थी।
ऊपर दिये गए साक्ष्य इस बात का पुख्ता प्रमाण है कि धर्मनारायण पाण्डेय ‘धर्मेश’ जी ने जो कथावस्तु अपने उपन्यास के लिए चुनी है पूरी तरह इतिहास सम्मत है। इसमें कहीं भी इतिहास के तथ्यों को तोड़मरोड़ कर अपनी तरफ से कुछ अलग नहीं कहा गया है। उपन्यास का शीर्षक ‘देशद्रोही का देशप्रेम’ बहुत सशक्त है जो पूरी कथावस्तु में सफलतम रूप से चरितार्थ हुआ है। निष्कर्ष रूप से मैं यह कह सकता हूँ कि धर्मनारायण पाण्डेय ‘धर्मेश’ जी अपने जनपद रायबरेली के हिंदी साहित्य के सशक्त उपन्यासकार हैं। ये (‘देशद्रोही का देशप्रेम’) रचना ‘धर्मेश’ जी की तीसरी औपन्यासिक कृति है। इसके पहले आपकी दो सामाजिक उपन्यास कृतियाँ ‘खिली कली मुस्काया भंवरा’ और ‘चिता की राख’ प्रकाशित हो चुकी हैं।
पात्र एवं चरित्र-चित्रण
किसी नाटक, कथा आदि में आये पात्रों के सोच, कार्यपद्धति, आदि के बारे में सूचना देना उस पात्र का चरित्र-चित्रण कहलाता है। पात्रों का वर्णन करने के लिये उनके कार्यों, वक्तव्यों, एवं विचारों आदि का सहारा लिया जाता है। पात्र के नज़रिए से कहानी लिखी जाती है। चरित्र-चित्रण की दृष्टि से धर्मनारायण पाण्डेय ‘धर्मेश’ जी अपनी रचना में बिलकुल खरे उतरे हैं, जैसा कि ये नायक प्रधान रचना है। समर सिंह इस उपन्यास का मुख्य नायक है। जो सशक्त राजपूत, सच्चा देशप्रेमी, मजबूत संकल्प वाला, निर्भीक, ईमानदार, तटस्थ मूल्यों वाला और दूरदर्शी सोच रखने वाला युवक है–
“मैं चाहता हूँ, इस प्रेम को किसी बन्धन में बाँध लिया जाये।” समर सिंह यह कहते हुए सकुचा उठा।
“कभी वह भी हो जायेगा।” विद्यु ने नतमस्तक होकर उत्तर दिया।
“कभी नहीं, शीघ्र ही, और बहुत शीघ्र।”
“इतनी शीघ्रता का कारण ?”
“चित्तौड़ पर विपत्तियों का पहाड़ टूटना चाहता है। विधर्मी अलाउद्दीन बड़े जोरों के साथ आक्रमण करने वाला है।”
है “ पिता जी द्वारा मुझे यह ज्ञात हो चुका है, और यह भी मालूम हो चुका कि चित्तौड़ के राजपूत युद्ध की काफी तैयारियाँ कर चुके हैं। आशा है इस बार उसका आक्रमण निष्फल जायेगा।” विद्यु ने मस्तक ऊपर उठा कर कहा।
“भूलती हो विद्यु। समर सिंह ने कहा– “मुट्ठी भर राजपूत, अलाउद्दीन की विशाल वाहिनी का सामना नहीं कर सकते । निश्चय है कि चित्तौड़ का विध्वंस हो जायेगा।
“इससे बचने का उपाय?”
“हमें अपनी सुरक्षा का प्रबन्ध करना होगा।”
“वह प्रबन्ध, आपने क्या सोचा है?”
“हम तुम दोनों पाणिग्रहण करके यहाँ से निकल चलें। किसी सुरक्षित स्थान में रहकर अपनी रक्षा करें।”
“यह क्या कह रहे हो समर सिंह? विद्यु ने आवेश के साथ कहा– “ ऐसी दशा में जबकि देश संकट ग्रस्त हो, यहाँ के निवासी मातृभूमि पर बलिदान होने की प्रतीक्षा में हो, हम तुम विवाह की खुशियाँ मनायें। जीवन की रंगरेलियाँ मनायें। फिर देश को असहाय छोड़कर यहाँ से निकल चलें । यह दूषित विचारधारा आपके मस्तिष्क में कैसे उत्पन्न हो गयी?”
“क्या करूँ, मैं विवश हूँ देवि! आज कई दिनों से बल्कि महीनों से इस पर विचार कर रहा हूँ किन्तु इसके अतिरिक्त अन्य उपाय मुझे नहीं सूझ पड़ रहा है।”
“यह भीरुता की बातें तुम्हारे मुँह से शोभा नहीं देती समर! राजपूत होकर इस प्रकार की कायरता की बातें?” विद्यु के शब्दों में क्रोध एवं विषाद की झलक थी । “भूलती हो विद्यु।" समरसिंह ने कहा- "यह भीरुता नहीं है, इसे कायरता भी नहीं कहा जा सकता।"
नायक के चरित्र को विस्तार देने के लिए जो अन्य पात्र इसमें आये हैं, वह चाहे नायिका विधु हो या अवसरवादी मालदेव हो। निष्कर्ष रूप में सभी पात्र इस रचना की पूर्णता के लिए आवश्यक हैं।
कथोपकथन अथवा संवाद
उपन्यास के पात्रों के पारस्परिक वार्तालाप कथोपकथन या संवाद की संज्ञा दी जाती हैं। उपन्यास के संवाद संक्षिप्त, सरस, गतिपूर्ण तथा पात्रों की चारित्रिक विशेषताओं का उद्घाटन करने वाले होने चाहिए। स्वगत और लंबे संवाद उपन्यास के दीर्घ कलेवर के लिए उचित माने गए हैं।
‘धर्मेश’ जी ने इस उपन्यास में मुहावरों का प्रयोग करके संवादों को उत्कृष्ट बनाया है। कठोपकथनों में विचारों का विश्लेषणात्मक रूप प्रयुक्त हुआ है। उपन्यास के संवाद अत्यंत चुटीले, कथानक को गतिशील बनाने वाले और पात्रों के चरित्रों को उजागर करने वाले हैं। नायक समर सिंह और नायिका विधु का संवाद यहाँ द्रष्टव्य है–
“अन्य सरदारों की सम्मति लेकर यह प्रस्ताव फिर से रक्खा जा सकता है। किन्तु जहाँ तक मेरा अनुमान है आपके इस प्रस्ताव से कोई सहमत न होगा।”
“हाँ, कम लोगों को मेरा यह प्रस्ताव मान्य होगा, मुझे भी ऐसा प्रतीत हो रहा है। इसका अनुभव तो तभी होगा जब देश नष्ट-भ्रष्ट हो जायेगा। मातृभूमि का वक्षस्थल शत्रुओं द्वारा कुचला जायगा। प्राप्त की हुई स्वतंत्रता पर परतंत्रता का अधिकार हो जायगा। तब शान्त चित्त से सोचने पर मेरे सुझाव का मूल्यांकन होगा और अवश्य होगा।”
“ऐसे शब्द मुँह से न निकालो समर सिंह।” विद्यु ने कहा– “वह दिन देखने के लिये चित्तौड़ का कोई राजपूत जीवित रहना पसन्द न करेगा।”
“पसन्द भी करेगा तो रहने न पायेगा।” समर सिंह ने कहा “जीवन का मोह सभी को होता है। सभी चाहता है कि हमारी आशायें पूर्ण हों। हमारा जीवन सुखमय हो।”
“किन्तु मातृभूमि का प्रेम उससे भी अधिक श्रेष्ठ है। उससे अधिक गौरवमय है।”
“हैं, इससे कोई इन्कार नहीं कर सकता। किन्तु जिसके द्वारा देश की रक्षा हो सके उस शक्ति की रक्षा पहिले होनी चाहिये, और वह शक्ति है जनशक्ति। इसलिये सबसे पहिले हमें अपनी सुरक्षा का ध्यान रखना चाहिये। यदि हम जीवित रहेंगे तो देश की खोई हुई स्वतंत्रता को पुनः प्राप्त कर लेंगे। यदि राणा अजय सिंह और उनके कुछ सरदार जीवित न होते तो यह स्वतंत्रता प्राप्त नही हो सकती। इसलिये मातृभूमि का उद्धार करने के लिये किसी न किसी का जीवित रहना भी आवश्यक है। यदि सम्पूर्ण देश नष्ट हो जायेगा, देश के समस्त निवासी स्वतंत्रता की यज्ञ में भस्म हो जायेंगे तो देश सदैव के लिये बन्धन युक्त हो जायेगा। और मरने पर स्वर्ग में भी हमारी आत्मायें तड़पती रहेंगी। उसे शान्ति नही मिल सकेगी।” समर सिंह ने बड़ी गम्भीरता के साथ कहा।
“मरने पर यह सन्तोष तो रहेगा ही कि हमने मातृभूमि की रक्षा में अपने को बलिदान कर दिया।” विद्यु ने कहा– “किन्तु यदि जीवित रहकर हम भविष्य में देश का उद्धार न कर सके, तो यह पश्चाताप जीवन भर बना रहेगा।
भाषा-शैली
प्रस्तुत उपन्यास में ‘धर्मेश’ जी ने सरल, स्वाभाविक, सामान्य, पात्रानुकूल, चित्रात्मक एवं प्रवाहमयी भाषा का प्रयोग किया है। भाषा कथ्य के अनुरूप है। ‘धर्मेश’ जी जो मूलतः हृदय से कवि हैं इसलिए इनकी भाषा काव्यात्मक और अलंकारिक हो गई है। कहीं-कहीं इनकी भाषा में उर्दू शब्दावली का भी सुंदर प्रयोग हुआ है। यथा–
“कहिये मियाँ असगर!” मुबारक ने मुस्कराते हुये पूछा– “कुछ कामयाबी मिली?”
“अभी नहीं हुजूर,” असगर ने कहा– “लेकिन उम्मीद है कि कभी न कभी कामयाबी जरुर मिलेगी।”
“कभी न कभी!” मुबारक ने कहा– “खुदा जाने तुम्हारी कभी कितनी लम्बी है। यह कहते हुये तो तुम्हें महीनों गुजर गये। याद रखिये कि मैंने खास तौर से तुम्हें इस ड्यूटी पर रक्खा है।”
“सब मालूम है हुजूर !” असगर ने कहा–“बन्दे पर जितनी हुजूर की इनायत रहती है उसे भूला थोड़े हूँ। मगर क्या करूँ, लाचार हूँ सरकार!
देश-काल और वातावरण
कथा का विकास भी स्थान और समय के अनुरूप होता है। उपन्यास में देश के अनुसार रीति-रिवाज, परंपरा, रहन-सहन, आचार-व्यवहार, वेशभूषा, बोल-चाल, व्यवहार तथा राजनैतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक परिस्थिति का चित्रण किया जाता है। देशकाल-वातावरण उपन्यास की कथा में यथार्थवाद लाने में मदद करता है। प्रस्तुत उपन्यास ‘देशद्रोही का देशप्रेम’ में देशकाल एवं वातावरण का सजीव चित्रण हुआ है। इस रचना में ‘धर्मेश’ जी ने मध्यकालीन मुस्लिम संस्कृति तथा हिन्दू संस्कृति के मध्य टकराव को प्रमुखता से चित्रित किया है। मालदेव जैसे पदलोलुप व धनलोलुप नकली राष्ट्रभक्त हो या विधर्मी, साम्राज्य विस्तारवादी नीति रखने वाला अलाउद्दीन ख़िलजी हो या कपटी, धूर्त, और टके में ईमान बेचने वाला अलीबेग हो या राजपूती गौरव की आन-बान पर मर मिटने वाला मुख्य पात्र समर सिंह हो, सभी का चित्रण बड़ी कुशलता के साथ हुआ है। इसमें पात्रों के अनुसार उनके आसपास के वातावरण को चित्रित किया गया है, जो उपन्यासकार की सफलता का द्योतक है।
उद्देश्य
आरंभ में उपन्यासों का उद्देश्य केवल मनोरंजन करना था। लेकिन साहित्य की अन्य विधाओं की तरह वर्तमान उपन्यास भी जीवन के यथार्थ को सामने रखने की कोशिश करता है। मनोवैज्ञानिक विश्लेषण द्वारा मानव मन की गहन व्याख्या का प्रयास इसमें किया जा रहा है। जीवन रहस्यों को, जीवन के अनुभवों को व्यक्त करने का कार्य उपन्यास करते हैं। किसी भी रचनाकार को जो ऐतिहासिक घटनाओं के आधार पर कुछ लिखने का प्रयास करता है उसे अपने समय से मुक्त होना पड़ता है। इसमें धर्मनारायण पाण्डेय ‘धर्मेश’ जी पूरी तरह सफल हुए हैं। इस उपन्यास को लिखने का मुख्य उद्देश्य आज की नई पीढ़ी को भारतवर्ष के अतीत के गौरवशाली इतिहास की वास्तविक जानकारी कराना है। राजपूती गौरव, मातृभूमि प्रेम और सतीत्व की रक्षा। सिर्फ़ मनोरंजन का उद्देश्य रखने वाले पाठकों के लिए यह उपन्यास अपेक्षाकृत कम उपयोगी सिद्ध होगा।
गहन तात्विक समीक्षा के उपरांत निष्कर्ष रूप से मैं ये कह सकता हूँ गतिशील कथानक, समुचित पात्र, सरल और पात्रानुकूल भाषा की दृष्टि से ‘देशद्रोही का देशप्रेम’ एक उत्कृष्ट रचना है। इसके लिए मैं सम्मानित रचनाकार, मानवीय मूल्यों के सशक्त पक्षधर, समृद्ध कालजयी रचनाओं के वरेण्य हस्ताक्षर धर्मनारायण पाण्डेय ‘धर्मेश’ जी के प्रति अपनी तथा हिंदी साहित्य की ओर से कृतज्ञता ज्ञापित करता हूँ।
©®अमरेश सिंह भदौरिया
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