संस्कार और सपने: नई सोच की ओर
गाँव के बाहरी छोर पर एक पक्का मकान था, जिसकी दीवारें पुरानी हो चली थीं, मगर रिश्तों की नींव अब भी मजबूत थी। इस घर में परंपरा और आधुनिकता की खींचतान चलती थी, लेकिन दोनों के बीच सम्मान भी बना हुआ था।
घर के मुखिया रमेश बाबू, 46 वर्षीय शिक्षक, कवि और लेखक थे। वे अनुशासनप्रिय थे और परंपराओं को महत्व देते थे, मगर आधुनिकता को पूरी तरह नकारते भी नहीं थे। कभी-कभी जब चीजें उनकी अपेक्षा से अलग होतीं, तो उनके भीतर क्रोध की लहरें उठती थीं।
उनकी पत्नी सुनीता, 43 वर्षीय गृहिणी, धार्मिक विचारों वाली थीं, मगर आधुनिक सोच को भी समझती थीं। पूजा-पाठ उनका दैनिक कर्म था, लेकिन वे फैशन, समाज और बदलती दुनिया से भी परिचित थीं।
उनकी बेटी नेहा, 18 साल की होनहार लड़की, जो बी. एस. सी. प्रथम वर्ष की छात्रा थी। वह आत्मनिर्भर बनने का सपना देख रही थी और अपने पिता की तरह एक अध्यापन के क्षेत्र में अपना कैरियर बनना चाहती थी। उसके विचार खुले थे, वह बदलाव को स्वीकार करती थी, लेकिन संस्कारों की अहमियत भी समझती थी।
सबसे छोटा था अंशुल, 12 साल का चंचल बालक, जो सातवीं कक्षा में था। पढ़ाई से उसे कोई खास लगाव नहीं था। किताबों से ज्यादा उसे क्रिकेट और मोबाइल गेम्स में दिलचस्पी थी। माता-पिता उसकी इस लापरवाही को लेकर अक्सर चिंतित रहते थे।
शाम का समय था। रमेश बाबू स्कूल से लौटे, तो देखा कि नेहा अपने लैपटॉप पर कुछ टाइप कर रही थी।
"क्या लिख रही हो?" उन्होंने पास आकर पूछा।
"कॉलेज डिबेट के लिए, पापा!" नेहा ने उत्साह से कहा।
"क्या विषय है?"
"परंपराएँ: जड़ता या प्रगति?"
रमेश बाबू ने चश्मा उतारा और ध्यान से देखा।
"परंपराओं पर सवाल उठाना जरूरी है?" उनकी आवाज़ में हल्की कठोरता थी।
"मैं सवाल नहीं उठा रही, बस यह समझाना चाहती हूँ कि जो परंपराएँ समय के साथ न बदलें, वे बोझ बन जाती हैं।"
रमेश बाबू कुछ देर तक सोचते रहे। वे खुद भी कविताएँ लिखते थे, लेकिन समाज की स्थापित धारणाओं को लेकर उनकी सोच बहुत परंपरागत थी। क्या वाकई उनकी बेटी सही कह रही थी?
उन्होंने बिना कुछ कहे अख़बार उठा लिया और उसे पढ़ने लगे। लेकिन उनके दिमाग में सवाल घूमने लगे—क्या परंपराओं को ज्यों का त्यों बनाए रखना सही है?
डिबेट का दिन आ चुका था। मंच पर कदम रखते ही नेहा ने गहरी सांस ली। हॉल में सैकड़ों छात्र, शिक्षक और निर्णायक बैठे थे। पूरे कॉलेज की निगाहें उसी पर थीं। उसने आत्मविश्वास से माइक थामा और बोलना शुरू किया—
"परंपराएँ: जड़ता या प्रगति?"
"यह प्रश्न सदियों से समाज के सामने खड़ा है। कुछ लोग परंपराओं को पत्थर की लकीर मानते हैं, जिन्हें बदला नहीं जा सकता, तो कुछ इन्हें पुरानी, अप्रासंगिक जंजीरों के रूप में देखते हैं, जिन्हें तोड़ना आवश्यक है। लेकिन क्या वास्तव में परंपराएँ हमारी प्रगति में बाधा हैं, या यह हमारी जड़ों की मजबूती का प्रतीक हैं?
परंपराएँ वो नींव हैं, जिन पर हमारी संस्कृति और सभ्यता टिकी हुई है। हमें वे मूल्य देती हैं, जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी हमें सिखाए गए हैं—सम्मान, संयम, सहनशीलता और कर्तव्यनिष्ठा। लेकिन क्या हम उन्हीं पर अटके रहें? अगर ऐसा होता, तो कभी भी समाज में बदलाव नहीं आता।
आज जब हम अपने इतिहास पर नजर डालते हैं, तो हमें दो तरह की परंपराएँ दिखाई देती हैं—एक जो समाज को आगे बढ़ने की ताकत देती हैं और दूसरी जो उसे पीछे खींचती हैं। उदाहरण के लिए, शिक्षा का महत्व हमारे समाज की एक महान परंपरा रही है। प्राचीन गुरुकुलों से लेकर आधुनिक विश्वविद्यालयों तक, हमने ज्ञान को हमेशा प्राथमिकता दी है। लेकिन वही समाज कभी लड़कियों की शिक्षा के खिलाफ था। यदि बदलाव न होता, तो क्या आज लड़कियाँ डॉक्टर, इंजीनियर, वैज्ञानिक या शिक्षक बन पातीं?
महात्मा गांधी ने कभी कहा था—"अच्छी परंपराएँ वह हैं, जो समय के साथ खुद को प्रासंगिक बनाए रखें, न कि वे जो व्यक्ति की स्वतंत्रता को कुचल दें।" हमें यह समझना होगा कि जो परंपराएँ हमारी सोच को सीमित करती हैं, जो व्यक्ति की स्वतंत्रता, अभिव्यक्ति और समानता के मार्ग में बाधा बनती हैं, उन्हें बदला जाना चाहिए।
मैं परंपराओं के विरुद्ध नहीं हूँ, बल्कि मैं यह मानती हूँ कि हमें उन परंपराओं को बनाए रखना चाहिए जो हमें संस्कारों से जोड़ती हैं, लेकिन उन पर पुनर्विचार करना चाहिए जो हमें जकड़ती हैं। आज का युवा नई सोच और नए विचारों के साथ आगे बढ़ रहा है। उसे दायित्व और स्वतंत्रता का संतुलन समझना चाहिए।
तो आइए, हम एक नए युग की ओर बढ़ें—जहाँ परंपराएँ हमारी पहचान बनें, लेकिन बदलाव की राह में बाधा नहीं। एक ऐसा समाज बनाएँ, जहाँ संस्कार और आधुनिकता साथ-साथ चलें। जहाँ हम अपनी जड़ों से जुड़े रहें और अपनी शाखाओं को खुले आकाश में फैलने दें।
क्योंकि—
"संस्कारों की मजबूती, बदलाव की स्वीकार्यता, और प्रगति की निरंतरता—यही सशक्त समाज की परिभाषा है!"
(हॉल तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा।)
घर लौटने पर नेहा के हाथ में सम्मान पत्र था। उसने जैसे ही पापा को देखा, पापा उसे गले लगा लिया।
"बेटी, तुमने सही कहा था," उन्होंने भावुक होते हुए कहा। "संस्कार और आधुनिकता में कोई टकराव नहीं है। असली सफलता इन्हें संतुलित करने में है।"
रात को जब पूरा घर सो चुका था, रमेश बाबू अपनी डायरी के पन्ने पलट रहे थे। उनकी नज़र नेहा के सम्मान पत्र पर गई। उन्होंने
लिखा—
"संस्कार जड़ों की गहराई हैं, सपने पंखों की ऊँचाई हैं,
जड़ें जितनी गहरी होंगी, शाखाएँ उतनी ही ऊँचाई तक फैलेंगी।
संतुलन ही जीवन का आधार है—जहाँ परंपराएँ नींव बनें और नए विचार उड़ान।"
सुबह जब नेहा ने पापा की डायरी देखी, वह मुस्कुराई और मन ही मन कहा,
"आज मैंने नहीं, हमने मिलकर एक सोच को आगे बढ़ाया है।"
संस्कार और सपनों की यह जुगलबंदी, अब कभी नहीं रुकेगी।
©®अमरेश सिंह भदौरिया
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