काशी की दुनिया हो
या काबा की बस्ती हो
यूँ ही न उजड़े चाहे
फ़कीर बाबा की बस्ती हो।।
साहिल से बिछड़ी हुई
मुक़ाम-ए-पास हो जाए
लहरों में फँसती चाहे
केवट की कश्ती हो।।
शोहरत की मस्ती हो
या माले की हस्ती हो
यूँ ही न टूटे कोई चाहे
मुफ़लिसी में घरबां गिरस्ती हो।।
मातहतों की मस्ती हो
या निगाहबां की गस्ती हो
हो सके न हावी कभी चाहे
मेरे अहबाब की नारास्ती हो।। .... नारास्ती-कपटता
विश्वासों की छाया हो
आशुफ़्ता की सख्ती हो ..... आशुफ़्ता-भ्रमित
खड़ा मुसाफिर भीगे न जब
रिश्तों की छतनार दरख्ती हो।।
थाम ले मौला उन्हें
कुछ अपना समझकर
ज़मीर से भटके हों चाहे
कीमत गिरेबां की सस्ती हो।।
यूँ ही न उजड़े चाहे
फ़कीर बाबा की बस्ती हो......................................@आनन्द
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