Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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मोर सखी

 

हे मोर सखी,
दीवाली-ए-जश्न म,
मोर मन खोय जात है !
कार्तिक के अधियारे म ,
ज्योति किरन का उजयाला है!
तमय धरा से दूर होत है,
कोनए कोने म नूर होत है 1
इ दीप मन्जरी ज्योति किरन म
मोर मन खोय जात है!

 

द्वेश भावना दूर होत है,
स्नेह मिलन को मजबूर होत है!
नमी उदासी दूर होत है,
शुचिता प्यारी घर घर खेलत है1
ए मौसम मोर मन खोय जात है.................

 

शिशू आन्गन कितने रूठ रहे है,
मन ही मन कुछ पूछ रहे है 1
खील पटाखे मुझे दिला दो,
चौराहे से कुछ घर ला दो
इस प्रश्न काल म
अम्मा भी खीझ रही है 1
बापू पाँसा फेक रहे हैं,
गली गली बो झूम र्अहे है !
इसीलिए अम्मा से मुन्ने ,
रूठ रहे है 1
गाँठें पल्लू की खोल रही हे ,
फिर भी कुछ कुछ सोच रही है !

 

इस अन्तर्मन की लाचारी म
केसे कहू मोर सखी,
मोर मन रोय जात है

 

 

 

.............................................,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,आन्नद

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