कामनाएं
तृप्त हो पातीं नहीं हैं
प्यास के पथ पर
युगों से चल रही है
हर हृदय में
त्रास बनकर जल रही है
भोग का आसव इन्हें बेचैन करता है
और दावानल जगाता है हृदय में
भूख, कुंठा और तृष्णा की कहानी
कामनाओं की परिधि में जी रही हैं
और व्याकुलता लिए सागर सरीखी
हलचलों सा द्वंद्व अपना पी रही हैं
सोचता हूँ-
इन अधूरी कामनाओं को सुला दूँ
जो कभी बस ही न सकते
भावनाओं के सुरभिमय गाँव
मैं उनको भुला दूँ
बलवती हैं किन्तु मेरी कामनाएं
मीन सी तड़पन लिए दम तोड़ती हैं
पत्थरों पर शीश अपना फोड़ती हैं
किन्तु विस्मृति की डगर पर
वे कभी जाती नहीं हैं
जानता हूँ- कामनाएं
तृप्त हो पाती नहीं हैं |
अनिल गुप्त ‘ज्योति’
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