मैं खड़ा हूँ
एक चेतन ज्योति बनकर
सामने मेरे अदम्य प्रकाश है
नील नभ है, यह वृहद् आकाश है
मैं खड़ा हूँ
पीठ के पीछे लिए छाया स्वयं की
सत्य हूँ मैं- जानता हूँ
किन्तु छाया, मात्र भ्रम है
मैं नहीं स्वीकारता हूँ
एक तुम हो
सैकड़ों सूरज सजाकर देह भर में
कर दिया मुझको अचंभित एक पल में
देखकर तुमको न जाने हो गया क्या
पंचभूतों से बनी इस देह के
दोनों नयन पथरा गये हैं
मैं खड़ा हूँ
मेरे बायीं ओर असंख्य पहाड़ हैं
हिमाच्छादित पर्वतों की श्रृंखलाएं
जलप्रपातों की मधुर ध्वनि गूंजकर
यह कह रही है
हम यहाँ जीवन-जगत के प्राण हैं
मैं खड़ा हूँ
और दायी ओर मेरे
घाटियाँ ही घाटियाँ हैं
सनसनाहट है हवाओं की कहीं पर
तो कहीं पर-
तीव्र गर्जन आंधियां हैं
मैं खड़ा हूँ
सत्य हो तुम
सत्य मैं भी
क्योंकि मैं भी तो तुम्हारा अंश हूँ
सृष्टि में मैं ही तुम्हारा वंश हूँ
किन्तु छाया मौन
तुम भी मौन हो
मध्य में मैं ही खड़ा
कुछ बोलता हूँ
कभी तुमको, कभी छाया
कभी खुद को तोलता हूँ
दृश्य हो तुम
और मैं हूँ मात्र दृष्टा
किन्तु छाया
मात्र पार्थिव देह – प्रक्षेपण तुम्हारा
मात्र माध्यम-स्नेहमय संबल तुम्हारा
इस तरह से तीन हैं हम
किन्तु जिस दिन
व्यथित व्याकुल प्राण यह आवाज़ देंगें
और पंखों को नया विश्वास देंगें
मैं उडूँगा- आ गले तुमसे लगूंगा
एक (हम-तुम) – एक छाया
मात्र दो ही सत्य हैं ब्रम्हांड के इस
एक चेतन- और उसका मौन प्रक्षेपण कहो या
बिम्ब कह लो याकि छाया
दृष्टि में जो आ रहा वह स्वप्न भ्रम है
चेतना ही उत्स है अंतिम, चरम है
मैं खड़ा हूँ |
अनिल गुप्त ‘ज्योति’
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