तुम अजीब हो
क्योंकि मेरे मित्र होकर भी
तुम ग़रीब हो |
मुझे देखो, मैं वी.आई.पी. हूँ
मैं ख़ास हूँ
जो भी पी रहे हैं
इस समाज का खून- उनके करीब हूँ
मैं उन सबके पास हूँ
मेरे पास नौकर हैं, बंगला है, कार है
शहर भर में फैला करोड़ों का व्यापार है
मेरे पास रुतबा है, दबदबा है, सम्मान है
तभी तो मंच पर खड़े होकर मैं कहता हूँ
कि- “अपना यह देश कितना महान है |”
कितना महान है वह खुदा-
जो देता है तो छप्पर फाड़ के देता है
और लेता है तो- मैंने कहा
“........फाड़कर लेता है”
वह चिढ़ा- मैं चढ़ा
मित्रता की नाव कब तक हिचकोले खाएगी
एक दिन जरूर डूब जायेगी |
नमस्ते, जय राम, सश्री अकाल
जब भी कभी सामने आओगे
मुस्कुराऊँगा, हाथ मिलाऊंगा
अवश्य पूछूँगा-
“मित्र ! क्या है तुम्हारा हाल”
अनिल गुप्त ‘ज्योति’
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