आज कविता दूर है औ’
जिंदगी है पास
शब्द-शिल्पी का लुटा इतिहास
भाव के सूने नगर
संकल्प के बिखरे शहर सा
मैं स्वयं
निर्जीव सा होने लगा हूँ
यातनाओं को समेटे
व्यर्थ के भ्रम पाल उर में
है युगों से चल रहा यह मर्त्य मानव
पंथ पर जिस
स्यात मैं भी
रूढ़ियों का दास बनकर
बोझ सी यह जिंदगी जीने लगा हूँ
किन्तु मेरी
वे कला की कामनाएं
हों न पायीं जो कभी साकार
मुझसे पूछती हैं
ओ व्यथित कवि मित्र
तुम स्वयं को भूलकर
किस भांति रहते हो
यह युगों का दर्द
तुम किस भांति सहते हो
ध्यान है ?
पहले कभी तुम रोज़ लिखते थे
रूप का, सौन्दर्य का, इतिहास का
तृप्ति का या फिर
अकल्पित प्यास का
देश की हर धड़कनों का दर्द गुनते थे
कल्पना का भी सुनहरा जाल बुनते थे
लौट आओ – तुम जहाँ हो
काव्य की अनुभूतियाँ मकरंद देतीं हैं
स्वर्ग सा भू पर हमें आनंद देतीं हैं
मैं निरुत्तर –
बोल कुछ पाता नहीं हूँ
शब्द फिर उठते
घुमड़ते बादलों सा
उत्तरों के पास जा पाता नहीं हूँ
शब्द-शिल्पी का लुटा इतिहास है
जिंदगी-
कुंठा, घुटन, संत्रास है |
अनिल गुप्त ‘ज्योति’
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