हम हैं इस देश के
राजनैतिक पुरोधा
हमारे अन्दर खून बह रहा है
राजे-महराजे-रजवाड़ों का
या फिर काले अंग्रेजों का
हमने शपथ ले रखी है
संविधान की
हम इस देश को जोड़ेंगे
किन्तु प्यारे मतदाताओं
‘जोड़ने के लिए पहले तोड़ना पड़ता है’
शपथ है संविधान की
हम भी संविधान सम्मत कार्य करेंगे
हम भी देश को तमाम टुकड़ों में
तोड़ेंगे- बांटेंगे –
कहीं भाषा के आधार पर
कहीं सम्प्रदाय के आधार पर
कहीं क्षेत्रीयता के आधार पर
हम सम्पूर्ण मानवजाति को
टुकड़ों-टुकड़ों में बांटने में
सक्षम हैं- तभी तो
जो समाज एकरसता की ओर
बढ़ता है
हम आरक्षण का निवाला फेंककर
उसे बाँट देते हैं
जातियों और उपजातियों में
अगड़ों और पिछड़ों में
अल्पसंख्यकों और बहुसंख्यकों में
गरीबों और अमीरों में
किन्तु अमीरों को और बांटा नहीं जा सकता
क्योंकि वे सत्ता रुपी रथ के
पहिये बन चुके होते हैं
फिर अब किसे बांटे ?
अब हमें उन्हें बांटना है
जो सत्ता और व्यवस्था से दूर
अपनी रोजी-रोटी के संग्राम से
जूझते हैं दिन भर-
शाम तक चूर हो जाते हैं थककर
और सो जाते हैं अगले दिन की
रोटी के जुगाड़ की दुश्चिंता में
सोना ही इनकी नियति है
और इन्हें सुलाए रखना अपना कर्तव्य !
क्योंकि उनका जागना संकट है
सत्ता के लिए
व्यवस्था के लिए
इनका जगना क्रांति है
एक उबलते हुए ज्वालामुखी जैसी
इन्हीं को बांटा जा सकता है
टुकड़ों – टुकड़ों में – सैकड़ों टुकड़ों में
एक कटोरा अनाज देकर
साल में सौ दिन की मजदूरी देकर
जो इनके खातों में पहुँचती है
लेकिन इनके हाथों तक नहीं
दारु की दो बोतलें देकर
महिलाओं को दो साड़ियाँ देकर
बेरोजगारों को भिखारी से भी कम
भत्ता देकर
कुछ नौजवानों को लैपटॉप
और टेबलेट देकर
और जब बांटने का कोई
रास्ता नहीं दिखता तो
दंगों की आग और
अफवाहों की आंधी से
हमें बांटना पड़ता है यह समाज
निर्दोषों की लाशों पर
वोटों का वृक्ष उगाने के लिए
हमें लगाना पड़ता है
नोटों का मलहम-
गिराने पड़ते हैं आँखों से आंसू
दिखाना पड़ता है अपनी प्रिय जनता को
कि हम कितने संवेदनशील हैं
हम कितने दुखी हैं |
क्योंकि हम जानते हैं सत्य
कि सत्ताएं निरंकुश होतीं हैं
और सत्ताएं यथास्थितिवादी होतीं हैं
इसीलिए यदि कोई बात करता है
सत्ता और व्यवस्था परिवर्तन की
हमें वह अच्छा नहीं लगता
क्योंकि हम लोकतंत्र के
सजग प्रहरी हैं
हम विद्रोह को सहन नहीं कर सकते
व्यवस्था परिवर्तन की आग सुलगाने वाले ये लोग
हमें आतंकवादियों से कम खूंखार नहीं दिखते
हम इन्हें कुचलेंगे- मिटायेंगे
तभी तो हम महान कहलायेंगे !
क्योंकि इस देश और समाज के
हमने जितने टुकड़े किये हैं
हमें उन सभी सैकड़ों टुकड़ों की चिंता है
और मित्रों
एक दिन क्यों
आज से ही
हम अपने स्वार्थ के लेप से इन सारे टुकड़ों को जोड़ेंगे |
ताकि हम भी सलामत रहें
और हमारी जनता भी |
कर्म, संघर्ष, श्रम और रोटी
के लिए इस देश की जनता
अपना पसीना बहाएगी
अभावों के प्रदूषित जल से नहाएगी
और हम लाल किले की प्राचीर पर
तिरंगा फहराकर
मुग़ल गार्डेन के गुलाबों की भीनी-भीनी
सुगंध से सुवासित होकर
उस परम स्वतंत्रता की अनुभूति करेंगे
और गर्व से गायेंगे-
‘सारे जहाँ से अच्छा......हमारा !’
अनिल गुप्त ‘ज्योति’
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