‘ईमानदारी एक रोग’ व्यंग्य
ईमानदारी का भी क्या हाल है
ईमानदारी के दर्द से दुनिया बेहाल है
अब यह सीने में चुभती है
घर–दरवाजों से यह छुपके से गुजरती है
सच पूछो तो आजकल यह एक रोग है
दुनिया इससे आरोग्य-नीरोग है
कोई नहीं अब इसकी चपेट में आता
ईमानदारी से अब मन है घबराता
यह तो केवल शब्दों में अच्छी लगती है
ईमानदारी के दानों से कब आजीविका चलती है
सपने इससे पूरे नहीं होते
पेट की आग भी कहाँ बुझती है
ईमानदारी का तो मगज खराब है
इसको पानेवाला बर्बाद है
दो वक्त की रोटी भी दुस्वार है
केवल इसको अपना लेने से
आधी दुनिया से बेमतलब की तकरार है
फिर क्यों खुद को झौका जाये इस आग में
रहने दो इसको इंसानी फितरत के ख़्वाब में
यह केवल काल परे की बातें है
ईमान पे चलने वालों के घर देखो
उनके घर ईद-दीवाली भी मातम सी आती है
सुख-सुविधायें उनके घर पे
दहलीज लाँगकर अन्दर घुस नहीं पाती है
फिर रहने दो ईमानदारी के इस रोग को
हमको तो बेमानी अच्छी लगती है
नोटों के बण्ड़ल से जेबें भरी हुई
रातें भी सुख-चैन से गुजरती है
जब बेमानी यह सब दे सकती है
तो क्यों ईमानदार का राग गुनगुनाएँ
ईमानदारी को डालो बक्शों में
आओ हम तो बेमानी से अपना घर-बार सजाएँ।
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