Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
Administrator

खूनी मजहब

 

‘खूनी मजहब’
लहू जो बहा तेरे तन से
कुछ दर्द तो उठा था मेरे मन से
कुछ आह तो तू ने भी भरी थी
तू और मैं नहीं मरा था
पर मानवता दोनों की मरी थी
पर हकीकत कुछ ऐसे है
मजहब दोनों के कहते है
तू भी कतरा है इंसानी
मैं भी हिस्सा हूँ इंसानी
फिर क्यों नफरत की आँधी
तेरे-मेरे बीच में
उठती है तूफानी
तू भी चल पड़ता है लेकर
अपनी हिस्से की अग्नि
मैं भी अपने हिस्से का
बारूद लिये फिरता हूँ
जो तू गाली दे मजहब की
मैं तलवार उठा लेता है
सड़कों पर कुछ लाल लहू
तेरा भी बिखरा है
कुछ छिंटे मेरे तन से भी
बहकर फैले है राहों में
मजहब तो तेरा भी कहता है
मजहब कुछ मेरा भी सुनाता है
हम लड़ते है जिस जंग को
वह ना तेरा मजहब चाहता है
ना मेरा मजहब करवाता है
हम तो अपने-अपने हिस्से की
लघुता को छिपाते है
धर्म नहीं, हम खुद को
रसना का अधिकारी
साबित करना चाहते है
पर कतरा जो गिरा था तेरे तन से
कुछ खून बहा था जो मेरा भी
क्या अन्तर था दोनों के रंग में
दर्द भी एक जैसा था दोनों का
चीका तू भी था तब
चिल्लाहट मेरी भी निकली थी
पर सच कहता हूँ तब
ना मानवता तुझ में थी
ना मानवता मुझ में दिखती थी
मजहब-मजहब दोनों चिल्लाते है

Powered by Froala Editor

LEAVE A REPLY
हर उत्सव के अवसर पर उपयुक्त रचनाएँ