| Jan 16, 2020, 6:46 PM (12 hours ago) |
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'मन की पीर'
कुछ शाम का अन्तर है
ढलते सूरज का
कुछ संध्या की लाली है
कुछ क्षण और ठहरकर
तम में छिपता उजाला है
फिर रात घनेरी
मन के अँधियारों को
गहरा देने वाली है
दिन को ओढ़ाकर
चेहरे की मुस्कान
भ्रमित रखा मन को
पर अब तम के साये में
उदित हूए दुख को
कैसे भरमा सकता हूँ
शांत रहा जो दिवांत तक
उस मन की पीड़ा को
क्या कर झूठला सकता हूँ
तम की काली छाया में
खुद का खुद से
सामना जब करवाता हूँ
मन की पीर की चीकें
बस मैं छुपके सुनता हूँ
और मैं ही
अपने मन को समझाता हूँ
रात के अँधेरे में
जब मैं खुद को पाता हूँ
खुद के साये से भी डरता हूँ
अपनी पीड़ा
मैं खुद से भी नहीं कह पाता हूँ
रात के अँधेरे में
जब मैं एकाकी होता हूँ
मन की पीड़ा का
खुद मैं ही साखी होता हूँ
खुद को खुद ही समझाता हूँ...।
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