मेरी आँखों मैं है कब से ख्वाब समंदर पार का।
कैसे यार भरोसा कर लूं मैं टूटी पतवार का।
मान न रख पाये जो अपने ओहदा औ दस्तार का।
हरगिज़ वो हक़दार नहीं है पगड़ी औ तलवार का।
ख़ामोशी को तोड़ के अपनी कुछ तो दिल क़ी बात कहो ,
कब तक बोझ उठायें आखिर हम गूंगी सरकार का।
भूख ,गरीबी ,महंगाई कि धूंप मैं झुलस रहे है लोग ,.
ऐसे मैं क्या लुत्फ़ उठायें गीतों का ,मल्हार का।
हैं बस्ती मैं रहने वाले गूंगे,बहरे ,अंधे लोग ,
अब कोई प्रयोग नहीं है मानव के अधिकार का।
उसने क्यूँ पाज़ेब के कारीगर से रिश्ता तोड़ दिया ,
जो इंसां शौक़ीन बहुत है घुंघरू कि झंकार का।
अनिल रस्तोगी
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