आँखों में पड़ी इस धूल का, हमें ही हटाना है....
चाहंे लाख कमाये धन दौलत हम, पर रोटी तो, दो ही खाना है....
कितना ही सुन्दर दिखे हम, पर नजर का टीका
तो, माँ ने ही लगाना है......
लाखों के गद्दे में सो जाए हम, पर सुकुन तो,
माँ की गोद में ही आना है.....
पूरी दुनिया घूम ले हम, पर वापस तो घर ही आना है...
हम तो मकानो में रहते है दोस्तों क्योंकि
मकानों को घर तो, अपनो ने ही बनाना है..
दुनिया को अपनाने निकले थे हम और माँ-बाप
को ही पराया कर बैठे हम...
ये जीना भी क्या जीना है दोस्तो....
जँहा न अपना और न अपनों का ठिकाना है..
खूब दौड़ चूके इस दौड़ में दोस्तो, अब रूककर
थोड़ा होश सम्भालना है...
जितनी जरूरत हो उतना ही कमाना है पर जिन्दगी को
जिन्दगी बनाना है....
इंतजार कर रही उन बूढ़ी आँखों की रोशनी बनना है...
कपकपाते उन हाथों को थामना है...
पैंसो की जगह खुशियों का आशियाना बनाना है..
हमें बच्चें पैदा करने से पहले बच्चें होने का फर्ज निभाना है..
आँखों में पड़ी इस धूल को हमें ही हटाना है....
आँखों में पड़ी इस धूल को हमें ही हटाना है....
अंजली अग्रवाल
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