Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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भीड़ में भी अकेले चलता हूँ मैं

 

 

भीड़ में भी अकेले चलता हूँ मैं.
रास्तें में पड़े पत्थरों को अलग करता हूँ मैं.
फूलों से जैसे काँटें निकालता हूँ मैं.
पहचान ले जो मुझे उसे किनारे तक पहुँचाता हूँ मैं.
लोग देखते ही नहीं मेरी ओर जैंसे अभिशाप बन गया हुँ मैं....
अरे दोस्तो तुम्हारा साथी हूँ मैं.
तुम्हारी उड़ती पतंग की डोर हूँ मैं.
तुम्हारे रिश्तो की नीव हूँ मैं.
एक बार मेरी ओर देखों गिरते को उठाता हूँ मैं.
असम्भव को सम्भव बनाता हूँ मैं.
विश्वास हूँ मैं.
पत्थर को मूर्ति बनाता हूँ मैं.
भीड़ में भी अकेले चलता हूँ मैं.
बाँहे फैलाये सबकी ओर देखता हूँ मैं.
विश्वास हूँ मैं.

 


अंजली अग्रवाल

 

 

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