Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
Administrator

कागज

 

मामूली सा कागज का टुकड़ा हुँ मैं‚
कभी किसी के गम का तो‚
किसी के खुशी का साथी हुँ मैं ।
कहीं बेजुबाँ होठो की आवाज हुँ मैं‚
तो कहीं सत्य का प्रमाण हुँ मैं ।
कभी बारिश के पानी में बहती नाव हुँ मैं‚
तो कभी आसमान को छूती पतंग हुँ मैं ।
सुबह घरों मे डेरो घबरो के साथ आता हुँ मैं‚
वही श्याम होते ही रद्दी बन जाता हुँ मैं‚
तो कहीं किसी के ज़िन्दगी भर की कमाई हुँ मैं।
मिट—मिट कर बनता हुँ मैं‚
कलम के लाखो जख्मों को सहता हुँ मैं‚
न जाने कितने भेस बदलता हुँ मैं‚
तब कहीं किताब बनता हुँ मैं ‚
वरना तो बस मामूली सा कागज का टुकड़ा हुँ मैं ।
कागज का टुकड़ा हुँ मैं

 

 

अंजली अग्रवाल

 

 

Powered by Froala Editor

LEAVE A REPLY
हर उत्सव के अवसर पर उपयुक्त रचनाएँ