ऊपर वाले ने भी अजीब सी दुनिया बनाई है....
मेरी जिन्दगी आँसुओं से सजाई है.......
नयी जिन्दगी को जन्म मे देती हूँ....
और अपनी ही जिन्दगी की तुझसे भीख माँगती हूँ....
कोठे मे बैठने वाला तो सेठ है .....
और मैं वैश्या बन जाती हूँ....
‘याम होते ही आंवारा ये इंसान बनकर घूमता है...
और घर से बाहर निकलना मेरा बन्द हो जाता है...
गन्दी निगाहो से वो देखता है.....
और नजरे मुझे झुकाना पड़ता है....
ये कैसा इंसाफ है तेरा...
जँहा सब मुझे ही सहना पड़ता है....
लड़की पैदा हो जाए तो भी दोष मेरा ही होता है...
यँहा तो न मायका और न ससुराल मेरा होता है....
कहाँ जाँऊ मैं ....
यँहा का तो कानुन भी अंधा होता है.....
मुझे पढाया नहीं जाता क्योंकि...
मुझे दूसरे घर जाना होता है.....
ससुराल मे मैं कुछ कर नहीं सकती क्योंकि...
यँहा मुझे बच्चे सम्भलना होता है.....
देख मेरी हालत को....
मैं इंसान नहीं दिपक हूँ....
जिसे बस जलना होता है....
बस जलना होता है।
अंजली अग्रवाल
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