न जाने कौन हैं हम.....
इस समाज के लिये तो बाल अपराधी हैं हम.....
न जाने कौन-सा अपराध हुआ हमसें .....
जो इस सुधार गृृह में आ गयें हैं हम.....
कभी जरूरतों ने मजबूर किया हमें....
तो कभी किसी के हाथ की कठपुतली बन गयें हम....
आज माँ-बाप के लियें बोझ और
समाज के लिये अभिशाप बन गये हम.....
हम तो हाथ फैलाये खड़े थे...
सही रास्ते सारे व्यस्त थे...
तो गलत रास्ते पर ही चल पड़े हम....
रेगिस्तान में पानी का भ्रम है हम....
वक्त से पहले ही बड़े हो गये हम....
सपनो की दुनिया मे ही तो जी रहे थे.....
जिससे अपराधी बनकर बाहर आयें हैं हम....
उस लो का इंतजार हैं हमें.....
जो इन दागों को धोकर कहंे कि नयी जिन्दगी अब जीना हैं हमें.......
कुछ समझ नहीें आता कि इंसान हैं या अपराधी है हम....
न जाने कौन है हम......
? अंजली अग्रवाल
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