संवेदना भवनाओं का एक सगंम है ये वो सहानुभूति हैं जो एक इंसान को दूसरे इंसान के प्रति होती हैं। और यह सहानुभूति तब होती हैं जब हम किसी के कष्टो को या दुख को स्प्र्श करते हैं।
थोड़े दिन पहले कि बात हैं मैं सब्जीन बाजार गई थी वहाँ मैंने देखा कि एक छोटा सा लगभग 5 साल का एक बच्चा दिवार के किनारे बैंठ कर जोर जोर से रो रहा था उसे देख कर आस—पास के लोग फोरन उसके पास गये और पूछा क्याो बात हैं और डेरो कोशिशो के बाद उसे उसके माता—पिता के पास पहुँचा दिया। उस बच्चेर को उसके माता—पिता से मिलाने में अहम भूमिका “संवेदना” की थी इस भाव के करण ही राहगिरो ने बच्चेम के कष्टों को महसूस किया। अगर ये संवेदना का भाव उस वक्तत उन राहगिरो के मन में न उठा होता तो न जाने वो बच्चाे कब तक रोता रहता।
अगर समाज में ये संवेदना का भाव न हुआ तो शायद हम सब स्वाेर्थी हो जायेगें । संवेदना ही हमें एक दूसरे के भावो का बोध कराती हैं अगर यह न हुई तो लोग न तो एक दूसरे की खुशी में शामिल होगें और न ही दुख में ‚ तब कहा रह जायेगा ये समाज‚ जब इंसान ही ताश् के पत्तोह की तरह बिखर जाऐंगे तो कौन बनाएगा समाज।
संवेदना ही हैं जिसने इन ताश् के पत्तो को जोड़कर समाज रूपी महल बना रखा हैं।
“संवेदना समाज की रीड्ड की हड्डी है जिसके बिना समाज का खड़ा रहना सम्भिव नहीं हैं।”
एक आदमी अपनी इंसानियत भूल कर कैसे शैतान बन जाता है कैसे किसी मसूम सी लड़की के कष्टोी को वो महसूस नहीं कर पाता हैं इसका एक कारण उस आदमी में संवेदना की कमी भी हैं। क्योंीकि अगर वो उसके कष्टो को महसूस करता तो उसकी वजह शायद न बनता।
“समाज के स्वा स्थं के लिये संवेदना की जरूरत ठीक वैसे ही हैं जैसे हमारे शरीर में खून की।”
क्योककि समाज इंसानो से बनता हैं और संवेदना के बिना‚ क्याे हम इंसान कहलाने लायक रह जाएगें ! ये एक बहुत बड़ा सवाल हैं जिसका जवाब हमें रोज अपने आस पास या
अखबारों में देखने को मिल जाता हैं।
जब किसी की वेदना हमारे दिल को स्पार्श करती हैं तब संवेदना उत्पअन्नआ होती हैं।
“बेटी की बिदाई पर आँखों से निकले आँसू संवेदना हैं‚
किसी भूखे को भोजन कराना संवेदना हैं‚
बूढे कपकपाते हाथों को थामना संवेदना हैं‚
हर रिश्तेा में प्रेम संवेदना हैं‚
गिरते को उठाना संवेदना हैं‚
हर वो भाव जो हमारे दिल तक पहुँचता हैं वो संवेदना हैं‚
हम इंसान तभी है जब संवेदना हैं।”
और संवेदना है तो ही समाज हैं।
अंजली अगवाल
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