झरते हैं तो झर जाये क्षण, जीवन-मुकुट के मोती से
किन्तु गिरे जब काल-सिन्धु में, भासित हो नव-ज्योति से.
झरने को झर ही जायेंगे, एक-एक कर जीवन के क्षण
किन्तु ऐसा हो यह झरना,जग में भर जाये जीवन
हर बिन्दु हो सार-भरा, हो कृतित्व दमकता नव्-द्युति से.
समय की नदिया कभी ना रीति,देह रीति गयी तो क्या
हम सृष्टि के अमर-पुत्र हैं,मृत्यु जीत गयी तो क्या.
चाह है यह बस, ऑख मिला पायें उस भव्य-विभूति से.
नव वसनों में नूतन देह का,सुसंस्कारों से ऋंगार करें
कभी ना बन्धन बांध पाये, हम समता का व्यवहार करे.
मन की गागर स्वच्छ रहे,गंग-धार बहे कठौती से.
अन्जु आर्या
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