इन दिनों भाषा में लैंगिक असमानता को लेकर एक बार फिर बहस चल पड़ी है। जब भाषा, धर्म, संस्कृति, शिक्षा, शासन, समाज सब कुछ पुरुष प्रधान या पुरुषों द्वारा संचालित रहा है तो भाषा का 'पुरुषों का, पुरुषों द्वारा, पुरुषों के लिये' नीति आधारित होना बिलकुल भी आश्चर्यजनक नहीं। इस पर आश्चर्य मत जताइए, सवाल कीजिये कि मनुष्य, आदमी, जन, मानव, person, गुरु आदि में स्त्री के स्वतः ही सम्मिलित होने भर को क्यों मान लिया जाता है? यह भाषाई चूक या असावधानी भर भी नहीं है। बल्कि यह लैंगिक भेदभाव हमारे पूर्वज पुरुष प्रधान समाज का सोचा समझा कदम था जिसमें स्त्री की अनुपस्थिति को नगण्य करार दे दिया गया और यह मान लिया गया कि दोयम दर्जे की नागरिक स्त्री के लिये किसी पदनाम आदि की जरूरत है ही नहीं।
यदि देशज या तद्भव शब्दों को देखा जाए तो भी वहाँ भी यही लैंगिक समानता जगह बनाये हुए है। मोटे तौर पर देखा जाए तो लगभग हर स्तर पर पुरुष सर्वनामों के प्रयोग का चलन है। विशेषकर सभी पदनाम इस सांस्कृतिक/भाषिक असमानता या कहिये पक्षपातपूर्ण रवैये का शिकार हैं। समग्रता में यदि बात की जाए तो हमेशा शिक्षक, लेखक, मंत्री, प्रधानमंत्री, मुखिया, सरपंच, चेयरमैन, अध्यक्ष, राष्ट्रपति, नेता आदि जो भी शब्द प्रयोग होते हैं सबका लिंग पुरुष ही है। यदि चेयरपर्सन, अध्यक्षा, लेखिका, शिक्षिका आदि शब्द अब चलन में आये हैं तो भी ये विचार करना जरूरी है कि ऐसे नए शब्द क्यों न गढ़े जाएँ जो कॉमन हों और इस जेंडर डिस्क्रिमिनेशन को नकारते हों, जिनके साथ he या she का कन्फ्यूजन ही न रहे, न ही प्रयोग को लेकर किसी भी असावधानी की गुंजाइश बाकी रहे।
इसके साथ ही हमारी अपनी मानसिक कंडीशनिंग को दुरुस्त करने की भी जरूरत है। कई बार अपडेशन के लिये पुराने सॉफ्टवेयर को इरेज़ करना भी जरूरी हैं। बहुत कुछ है जिसे unlearn किया जाना जरूरी है। किन्तु तब तक एक लेखक को लेखक कहा जाना ही काफी है इसके लिये हमें स्त्री लेखक या लेखिका जैसे शब्दों की जरूरत क्यों पड़ती है आइये इस पर नए सिरे से विचार करें।
राष्ट्रपति/राष्ट्र अध्यक्ष यदि महिला है तो क्यों उसका विपरीत लिंग ढूंढने के लिये पूरी सभ्यता अधीर हो जाती है? क्यों भई, किसी स्त्री को राष्ट्रपति पुकारने, सुनने भर की गुंजाइश आप क्यों नहीं विकसित कर लेते हैं? आपकी बॉस, लेडी बॉस क्यों कहलाती है? ये 'लेडी बॉस' कहने के साथ मुस्कुराते हुए बिटवीन द लाइन्स जो आप कहना चाहते हैं, क्या स्त्रियाँ उसे नहीं पढ़ सकतीं?
अब जबकि देश के दो सर्वोच्च पदों तक स्त्री की पहुँच बन चुकी है तो यह धारणा स्वतः ही ध्वस्त हो चुकी है कि कोई भी पद केवल पुरुष प्रधान है। यहीं से भाषा शास्त्रियों के साथ समाज की जिम्मेदारी शुरू हो जाती है, कि समाज की भांति भाषा में भी पुरुषों का वर्चस्व अब अतीत की बात हुई, तो अब भाषा को नए सिरे से परिष्कृत करने पर ध्यान दिया जाए,जिसका आधार लैंगिक समानता हो और जो कम से कम चालीस पचास पहले ही शुरू हो जाना चाहिये था।
खैर बस यही कहना है बात निकली है तो अब दूर तलक जाए।
--अंजू शर्मा
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