छाया घना अन्धकार है
जिसमें पुरुष रूपी खूंखार भेड़िया घूम रहा है
लाल-लाल जलती मशाल की तरह
अपनी आँखे चमकाता है।
मन में लिए लालसा स्त्री को लील लेने की
एक गुर्राहट लिए स्त्री के प्रति
उसके चिथडे़-चिथडे़ कर देने की।
घूम रहा है हुकुम का इक्का लिए
जैसे राज इसी का हो
किये जा रहा है शोषण स्त्री का
जैसे जागीर इसी की हो।
हो रहा है शोषण, अत्याचार जुल्म
स्त्री पर हर दिन
किसे सुनाए अपना दु:ख, वेदना
बेचारी अभागन।
देह शोषण करे उसका
बीच चौराहे पर करे अपमान
नोच कर वस्त्र इसके
नग्न हाल में कर देता।
मौन अवस्था में पड़ी रहती
हाय बेचारी
अबला नारी।
किसे सुनाए अपने मन की व्यथा
कौन सुनेगा इसकी पीड़ा
किसे सुनाए पुरुष के कुकर्मों को
करता है मानसिक, दैहिक अत्याचार।
बेचारी नारी इस शोषण तले
इतना दब गई
हुई निढ़ाल पस्त हो गई
पुरुषवादी व्यवस्था से।
छीन ले गया अधिकार आत्म-सम्मान
वंचित रखा स्वतंत्रता से।
बेचारी नारी
खोई रही रीत-परंपरा में
निभाती रही रूढ़िवादी कर्त्तव्यों को
इस व्यवस्था ने निगल लिया
औरत के अस्तित्व को।
-अन्जुम.
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