-अन्जुम
देख कर उस मंज़र को काप उठी मेरी रूह,
मेहसूस किया मैने उस पीडित, वंचित जनता के दर्द को
वो कैसा खौफनाक मंज़र था, कुछ समझ न आया
बिखरी पड़ी थी लाशे सिकुडी ठिठरी नंगी लाशे
मौन पडी थी लाशों पर लाशे।
हुई थी अपनी माँ से दूर बिटिया
मलबे के नीचे बिलख रही थी बिटिया
कैसे बताऊँ उस वेदना, उस दु:ख-दर्द को
भूख से तडप रहे थे, रीरीया रहे थे, सिसक रहे थे लोग
हुई थी यूँ लाचार जिन्दगी
कुछ मांग रहे थे लोग
भीक अपनी जान बचाने की
बिलख रहे थे चीख़ रहे थे तडप रहे थे लोग।
आयी थी कैसी विपदा वह
उजड़ गये हैं घर के घर
नजाने कैसी विड़बना है
हुए है लोग अपने ही घर से बे घर, उजड़ गया है घर संसार।
बचा सके न बदरिनाथ, मौन रहे केदारनाथ
खुद की भी रक्षा न की, बह गये इस तबाही की बाढ में
प्रकृति का खेल निराला
कैसा कहर यहाँ है ढाया |
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