Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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नारी संघर्ष

 

 

आयी थी जब दुनिया में
खुश तो बहुत हुई थी
रंग-बिरंगी दुनिया की
चका-चौंध में गुम हुई थी।

 

माँ की थी रानी बिटिया
बाबा की थी लाडली
घर का सम्मान थी
देश का मान थी।

 

सोचा था पढूंगी-लिखूंगी
पापा का सहारा बनूंगी
देश का उज्वल भविष्य बनूंगी
करूंगी देश-जन की सुरक्षा
पर करना सकी मैं खुद की सुरक्षा।

 

मान बैठी थी इस देश को
घर आंगन अपना
एक रोज़ निकल पडी थी
उस आंगन में टहलने

 

कर बैठी गलती यह सोच कर कि-
सुरक्षित हूँ मैं अपने घर-आंगन में
झपट पडा दरिन्दा हैवान
अपने ही घर में।



बिलख रही थी चीख रही थी
माँग रही थी दुहाई
अपनी आबरू बचाने की
पर हो गई शिकार
उस हैवानितय की।

 

हुआ था हाल बे-हाल मेरा
लड़ रही थी मौत से
ज़िन्दगी को जीने के लिए
उठे थे लाखों हाथ दुआ में मेरे लिए

 

हर रोज़ हर पल रो रही थी मैं
सोच कर यह कि-
कैसे मेरे ही घर का सदस्य
निगल गया मुझे।

 

छीन तो सब कुछ गया था मेरा
बचा रहा तो सिर्फ़ मेरी आँखों का इशारा
माँ का सहारा पापा का प्यार
लोगों का विश्वास।

 

सड़कों पर रैलियाँ निकली
देश के हर कोने से
जो माँग रही थी इन्साफ़ मेरे लिए
थी आँखों में नमी मेरी हर माँ-बहन की
क्योंकि डर तो गयी थी वह भी
इस दरिन्दगी से।




एक रोज़ जाना पड़ा कहीं दूर मुझे
फ़िर वापस न आने के लिए हो गयी थी
आँखें बंद मेरी
रात के सन्नाटे में

 

अब बहुत खुश हूँ मैं
उस घर-आँगन को छोड़कर
क्योंकि आज़ाद हूँ यहाँ
मैं उस दरिन्दगी से।

 

आज़ाद हूँ उस गुर्राहट से
उस निगाह से
जो घूरती थी रात-दिन मुझे।

 



-अन्जुम.

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