क़ह्र(qah'r) की बिजली जब क़ुदरत इंसां पे गिराती है
मानवता सदियों तक उसको भूल न पाती है ।
इक मुद्दत में जाकर एक नशेमन बन पाता
आँधी ये मग़रूर उसे पल में ढा जाती है ।
उसकी मर्ज़ी से बनते हैं उसके सब क़ानून
उसकी लाठी चलने पर आवाज़ न आती है ।
जब भी कोई ख़ाब हँसीं पूरा होने को हो
क्यों ये हक़ीक़त अपना काला रूप दिखाती है?
काश कभी सनकी तूफ़ां समझे इंसां का दर्द
उसकी पल की मस्ती कितनी नाव डुबाती है!
क्यों वो हर ज़र्रे को पल में मरघट कर देता
वो तो सबका हाफ़िज़ है ये माँ बतलाती है?
—अंकित गुप्ता 'अंक '
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