Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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क्या शिकायत करूँ ज़माने की

 

क्या शिकायत करूँ ज़माने की,
मुझको आदत है मुस्कुराने की ।


मैं ही कब तक उसी को याद रखूँ?
जिसकी फ़ितरत है भूल जाने की ।


तुमने बेघर किया उसे लोगों ,
दी जगह जिसने सर छुपाने की ।


सरफ़रोशी की उनसे बात करो,
जिनकी हसरत हो सर कटाने की ।


इन्तिख़ाबों में जो किए वादे ,
उनको कोशिश तो हो निभाने की ।


दिल से चस्पा हैं दर्दो-ग़म इतने ,
क्या ज़रूरत है दिल लगाने की?


भूल कर ग़म को जब हँसा था मैं
कोशिशें की गईं रुलाने की ।


गर बग़ावत न 'अंक' कर पाया,
वज्ह कुछ तो है दब ही जाने की!

 


★अंकित गुप्ता 'अंक‘

 

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