Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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समाज में नैतिक मूल्यों का पत्तन

 

 

आजकल एक बार फिर से देश के मीडिया मंे ढोंगी-पाखंडी संतो, बाबाओं विशेषकर राधे माँ के कथित धर्म विरोधी आचरण एवं अश्लीलता फैलाने वाले चित्रों पर चर्चा जोरों से जारी है। आखिर चर्चा हो भी क्यों न ? नैतिकता एवं धार्मिक परंपरा का वाहक, रखवाला एवं प्रचार-प्रसार करने का दावा करने वालों के ही चरित्र एवं नैतिक आचरण पर जब सवालिया निशान लगने लग पड़ें तो लोगों में चर्चा तो होगी ही और यह चर्चा इतनी शिद्त से होनी चाहिए ताकि तमाम लोग ऐसे भ्रष्ट आचरण वालों के चंगुल में आने से बचें। यह हमारा ही देश है जहां हमारी धर्मभीरू जनता व्हाट्सएप्प, फेसबुक और एस.एम.एस. जैसे सोशल मीडिया पर चलने वाले धार्मिक संदेशों, चित्रों को तत्काल लोगों को भेजने में तनिक भी देर नहीं लगाती है। यह हमारे देश के ही नागरिक हैं जो सर्वत्र गंदगी फैलाने और सार्वजनिक जगहों पर मल-मूत्र विसर्जन करने से भी गुरेज नहीं करते हैं लेकिन इन्हीं स्थलों पर जब भगवान की मूर्ति या चित्र लगा दिया जाता है तो यह लोग तत्काल दंडवत की मुद्रा मंें आ जाते हैं। लोगों के इसी आचरण, अंध विश्वास एवं धार्मिक आस्था का लाभ उठाने वालों की भी इस देश में कोई कमी नहीं है।


देश में इस समय 13 अखाड़े हैं जिनमंे जूना, निरंजनी एवं महानिर्वाणी अखाड़े धार्मिक दृष्टिकोण से महत्ववूर्ण हैं। आचार्य महामण्डलेश्वर के अतिरिक्त कितने ही लोगों को अतिरिक्त महामण्डलेश्वरों की पदवियां दी जा सकती हैं लेकिन शर्त है कि वह व्यक्ति धार्मिक आचरण वाला वैरागी, सन्यासी हो और मोह-माया के बन्धनों से परे हो चुका हो। लेकिन अचरज तो तब और बढ़ जाता है जब हिन्दू धर्म के अखाड़ों द्वारा कथित रूप से बिना किसी धार्मिक पृष्ठभूमि, शास्त्रों के ज्ञाता होने, उचित संस्कारों के ज्ञान एवं आचरण की पड़ताल किये बिना ही पता नहीं किन कारणों के चलते शराब व्यापरियों, झोलाछाप बाबाओं अथवा कथित राधे माँ जैसे मर्यादाविहीन आचरण करने वाले लोगों को महामण्डलेश्वर जैसी उच्च पदवियों अलंकरणों से नवाज दिया जाता है। ऐसे मौकापरस्त लोगों द्वारा अब तो निजि टी.वी. चैनलों पर रूपया फैंको, तमाशा करो की तर्ज पर मनमाफिक चलने वाले प्रसारणों से जनता को भ्रमित कर करोड़ों-अरबों रूपया कमाने का धंधा ठीक-ठाक चल निकला है।


आपको अधिकांश संत, महात्मा एवं तथाकथित महामण्डलेश्वर ऐसे भी मिलंेंगे जो गीता या संस्कृत की पाठ्य पुस्तक के सामान्य श्लोक का उच्चारण भी नहीं कर पाएंगे, अभिप्राय समझाना तो बड़ी दूर की बात होगी। लेकिन उनके नाम और उसके आगे लगी बड़ी-बड़ी उपाधियों की चकाचैंध में अच्छे खासे, पढ़-लिखे लोगों और नामचीन प्रसिद्ध हस्तियों और नेताओं का जमघट देखकर उनकी समझबूझ और शिक्षा-दीक्षा पर भी दया आती है। हम, हिन्दू धर्म समाज के सभी संतों, महात्माओं को एक ही तराजू पर नहीं तौल सकते हैं। एक से बढ़कर एक तपस्पी-त्यागी, वैरागी, उच्च चारित्रिक विशेषताओं से युक्त ज्ञानी-ध्यानी एवं सुसंस्कृत महात्मा-संतों की भी कोई कमी नहीं है जो अपनी ज्ञानवाणी से समाज का उचित रीति-नीति से मार्गदर्शन कर रहे हैं। लेकिन यदि चन्द एक तथाकथित ढोंगी बाबाओं की दुकानदारी धड़ल्ले से चल रही है तो इसके लिए कमाबेश दोषी भी हम और हमारे समाज के लोग हैं जो भेड़ चाल का हिस्सा बनकर अपनी समझबूझ पर पर्दा डालकर ऐसे लोगों के आयोजनों में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेते हैं और अपने दुखों के निवारण के नाम पर हजारों रूपयों लुटवाकर और ज्यादा दुःख के पात्र बन जाते हैं, ऊपर से जग-हंसाई न हो इस चक्कर मंे इन कथित ढोंगी, पाखंडी बाबाओं की सच्चाई दूसरे लोगों को भी बताने में परहेज करते हैं। जिस वजह से ऐसे लोगों का रूतबा समाज में जस का तस बना रहता है। आधुनिक जमाने की भागदौड़ में जल्दी से जल्दी अपनी रूकावटों, बाधाओं और समस्याओं से पार पाने के चक्कर में लोग अपना आर्थिक, शारीरिक और मानसिक शोषण भी करवा बैठते हैं। हमारे अखाड़ों के वरिष्ठ धर्माचार्यो, आचार्य और महामंडलेश्वरों को दिन-प्रतिदिन संत समाज में आ रही गिरावट और गिरती प्रतिष्ठा को बहाल करने हेतु अब स्वयं आगे आना चाहिए तथा नियमों एवं सख्त व्यवस्थाओं के आधार पर ही पदवियों का वितरण करना चाहिए। सभी जानते हैं कि नागा साधु बनने के लिए मापदंड एवं मानक कितने जटिल एवं दुरूह हैं। संत समाज को भी विलासितापूर्ण जीवनयापन एवं महंगी वस्तुओं और वाहनों की चकाचैंध मंे आने से बचने की जरूरत है क्योंकि जो तपस्वी, वैरागी आध्यात्मिक एवं धार्मिक व्यक्ति स्वयं ही मोहमाया और धन लोलुपता की भावना से ग्रसित है वह भला समाज को विशेषकर आम जनता को दया, धर्म, त्याग, मोहमाया, आसक्ति और वैराग्य से मुक्ति का क्या संदेश दे पाएगा ?


हम आज भी शिक्षा-साक्षरता वाले प्रतिशत के आंकड़ों मंे अपने आपको उलझाकर बैठे हुए हैं जिससे हम रोजगार-विकास सम्बन्धी जरूरतों को तो पूरा कर सकते हैं लेकिन यदि हमें अपनी मानसिक, आध्यात्मिक संतुष्टि हेतु आगे बढ़ना है तो हमारे लिए आदर्श ज्ञान की सरिता हमारे वेदोें, पुराणों, उपनिषदों, गीता और अन्य धार्मिक ग्रंथों में पिछले 7-8 हजार वर्षों से संग्रहित-रचित शास्त्रों मंें ही बहती हुई मिल जाएगी। विज्ञान एवं शिक्षा के युग में भी यदि आज चन्द चालक प्रवृति के लोग हमारी धार्मिक आस्थाओं का दोहन कर रहे हैं, खिलवाड़ कर रहे हैं तो इसके लिए दोषी हमारी व्यवस्था नहीं है बल्कि हमारी स्वयं की अज्ञानता है। उम्मीद की जानी चाहिए कि हमारे देश के प्रबुद्ध नागरिक धन कमाने के लिए धर्म के नाम पर ओछे हत्थकंड़े अपनाने वाले इन कथित ढोंगी, पाखंडी बाबाओं के चंगुल मंें फंसने से स्वयं को बचाएंगे तथा पढ़े लिखे विद्वान लोग विशेषकर शिक्षक समाज इन लुटेरों के षडयंत्रों के विरूद्ध आम जनता मंे जागरूकता फैलाने में अपना उल्लेखनीय योगदान देगा। निःसन्देह ऐसे लोगों के विरूद्ध प्रिंट एवं इलैक्ट्राॅनिक्स मीडिया का आगे आना बेहद सराहनीय है। सरकार को भी इस प्रकार के मर्यादाविहीन और धर्म विरोधी आचरण करने वाले लोगों के लिए आचार संहिता बनाकर सख्ती से पेश आना चाहिए और तत्काल आपराधिक मामलों में संलिप्त बाबा लोगों की सम्पत्तियों को जब्त कर लेना चाहिए। पूरे राष्ट्र के नागरिकों के लिए एक अच्छे चरित्र यानि ‘‘नेशनल करेक्टर फ्रेमवर्क’’ को तैयार किए जाने की तत्काल आवश्कता है, तभी हम विकासशील राष्ट्र से विकसित राष्ट्रों की कतार में खड़े हो पाएंगे।

 

 

 


अनुज कुमार आचार्य

 

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