इन दिनों सोशल मीडिया में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा देशवासियों के नाम संदेश वाला एक वीडियो संदेश वायरल होते हुए देखा जा सकता है। जिसमें वह पश्चिमी देशों और अमेरीका में सार्वजनिक स्थलों यथा-रेलवे स्टेशन अथवा एयरपोर्ट पर गुजरने वाले वहां के सैनिकों के सम्मान में नागरिकों को करतल ध्वनि से उनकी होंसला अफजाई करते हुए और उनका अभिनन्दन करते दिखाई देने की बात करते हुए भारतीय नागरिकों से भी इसी तर्ज पर अपनी सशस्त्र सेनाओं के जवानों का स्वागत करने की अपील करते नज़र आते हैं। इसी के साथ सोशल मीडिया में एक तस्वीर और देखने को मिल रही है जिसमें संभवतः मैट्रो टेªन में एक भारतीय सैनिक को ट्रेन के फ्लोर पर अपने ट्रंक पर बैठकर सोते हुए सफ़र करते हुए दिखाया गया है जबकि उसके अगल-बगल में लोग आराम से कुर्सियों पर बैठे बतियाते हुए नज़र आ रहे हैं। इसी सिलसिले में मेरे कुछ मित्रों ने मुझसे अपनी व्यथा सांझा करते हुए अपना दुख व्यक्त किया।
इसी प्रकार मैं जब भी अपने लेख में सेना अथवा भूतपूर्व सैनिकों के प्रति अपना समर्थन व्यक्त करते हुए कोई लेख लिखता हूं तो जरूर कोई न कोई सज्जन हमारे सैनिकों और भूतपूर्व सैनिकों को मिलने वाली उनकी पैंशन, केंटीन अथवा मेडीकल सुविधाओं के प्रति अपना रोष व्यक्त करते हुए मिल जाते हैं जबकि सम्मान देने की बात करना तो दूरी की कौड़ी है। मेरी समझ में यह नहीं आता है की आखिर क्यों हमारे कुछ लोग अपनी सेनाओं को मिलने वाली सुविधाओं का स्वागत नहीं करते हैं? इसके पीछे शायद हमारे नागरिकों में सैनिकों के त्याग, बलिदान और कठिन परिस्थितियों में की जाने वाली सैन्य सेवा के प्रति जानकारी का आभाव है या उन्होंने अपनी मानसिकता ही वैसी बना ली है। शायद उन्हें अंदाजा नहीं है कि किन दुरूह और कठिन हालात में चुनौतियों भरे माहौल में हमारे सैनिक और केन्द्रीय अर्ध सैनिक बलों के जवान अपनी ड्यूटी को निभाते हैं। प्रायः टी.वी. चैनल्स पर बेहद तकलीफदेह परिस्थितियों में हमारे सैनिकों को सतत् कर्Ÿाव्यपालन के लिए मुस्तैदी से डटे हुए दिखाया भी जाता है। अमूमन हर चैथे पांचवें दिन हमारे सैनिकों को आतंकवादियों के साथ मुठभेड़ों के सीधे प्रसारण में पत्थरबाजों द्वारा पैदा की गई जोखिम वाली हालातों में भी मोर्चे पर डटे हुए देखा जा सकता है। होली हो या दीवाली अथवा कोई अन्य त्योहार और तो और अपने बच्चों का जन्मदिन तक न मना पाने से वंचित रहकर भी हमारे इन देशभक्त सैनिकों का मनोबल सातवें आसमान पर बना रहता है लेकिन वे कभी शिकायत नहीं करते हैं। महीनों तक लगातार 24 घंटों की नौकरी में डटे रहकर भी बुलंद हौंसलों के साथ हमारे यह सेनानी सीमा की चैकसी और रखवाली करते हैं और यही वजह भी है कि हम लोग देश के भीतर अपने परिवारों के साथ आनंद पूर्वक चैन की नींद सोते हैं।
बेहद दुख और पीड़ा होती है जब हमारे कुछ मित्रों को सैनिकांे एवं पूर्व सैनिकों को मिलने वाली सुविधाएं तो दिखाई पड़ती हैं लेकिन सैनिकों द्वारा उठाई जाने वाली मानसिक पीड़ा एवं तकलीफें नहीं दिखाई देती हैं। एक नया नवेला शादी शुदा जवान भी महीनों छुट्टी न मिल पाने के कारण अपनी प्रियतमा के मिलन से वंचित रहकर विरह की आग में स्वयं को जला लेता है लेकिन कभी उसके चेहरे पर शिकन तक नहीं आती है। मुझे कई ऐसे भी भूतपूर्व सैनिक मिलते हैं जो कान पकड़कर कहते हैं की माफ कीजिए हम अपने बच्चों को फौज में नहीं भेजेंगे। स्पष्ट है की सैन्य जीवन फूलों की शैय्या पर सोने जैसा तो कतई नहीं है। क्या आपने किन्हीं बडे़ नेता या मंत्री के बेटों को फौज में नौकरी करते सुना है? सवाल ही नहीं उठता क्योंकि उनके लिए कम पढ़ा-लिखा होकर भी नेता अथवा मंत्री बनना आसान है लेकिन फौज़ में सिपाही भर्ती होना बेहद मुश्किल है। बिहार में लालू प्रसाद के दोनों साहबज़ादे बेटे इसका प्रत्यक्ष एवं साक्षात उदाहरण हंै। उच्चाधिकारियों एवं बडे़ उद्योगपतियों तथा व्यापारियों की भी यही कहानी है और न ही उनकी सेहत पर कोई असर पड़ता है। तो फिर टीका-टिप्पणी में कौन व्यस्त है हम और आप।
भारत सरकार के पत्र सूचना कार्यालय द्वारा जारी पत्र के अनुसार 31 दिसम्बर 2015 की स्थिति के अनुसार भारतवर्ष में कुल सेवानिवृŸा सैनिकों की संख्या 24 लाख 47 हजार 894 थी। जिसमें से सर्वाधिक 3 लाख 48 हजार 642 उŸार प्रदेश से सम्बन्धित थे तो अण्डेमान निकोबार द्वीप समूह में मात्र 25 भूतपूर्व सैनिक थे। हिमाचल प्रदेश में कुल सेवानिवृŸा सैनिकों की संख्या 1 लाख 9 हजार 697 थी। यह सभी युवावस्था में रिटायर होकर घर आते हैं। दक्ष, कुशल, हुनरमंद और अनुशासित होते हैं। पारिवारिक जिम्मेवारियां भी बढ़ चुकी होती हैं लिहाज़ा मामूली पेंशन से गुज़र बसर करना मुशिकल होता है इसलिए इनका पुनर्वास करना राज्य एवं केन्द्र सरकारों का नैतिक जिम्मेदारी होती है। इसलिए केन्द्र सरकार ने अपनी समूह ‘ग’ की नौकरियों में 10 प्रतिशत एवं समूह ‘घ’ में 20 प्रतिशत आरक्षण रखा है। जबकि हिमाचल प्रदेश में पूर्व सैनिकों को यथोचित सम्मान देते हुए सभी वर्गों की नौकरियों में 15 प्रतिशत का आरक्षण प्रदान किया है। लेकिन खेद का विषय है कि हिमाचल प्रदेश में अब पूर्व सैनिकों को भी अनुबंध पर नौकरियां दी जा रही हैं और उनके ‘पे फिक्सेशन’ और सीनियोरिटी के मामले भी लटके हुए हैं, जिसमें सुधार अपेक्षित है।
भारत-पाक के बीच 1948, 1965, 1971 ओर 1999 की लडाइयों में पाकिस्तान के 15 हजार 29 सैनिक मारे गए थे तो भारत के 8 हजार 738 सैनिक शहीद हुए हैं। पिछले 35 वर्षों से पंजाब, जम्मू कश्मीर और पूर्वोतर के राज्यों में जारी आतंकवादी झडपों में मरने वाले सैनिकों का आंकड़ा कहीं ज्यादा है। यदि हम वैश्विक तौर पर रक्षा खर्च की तुलना करें तो अमेरीका का रक्षा बजट, भारत के रक्षा बजट से 12 गुना ज्यादा है और लगभग 6 खरब 22 अरब डालर है। इस विŸिाय वर्ष में भारत का रक्षा बजट लगभग 53 अरब डालर प्रस्तावित है और हम अमेरिका, चीन, ब्रिटेन के बाद चैथे नम्बर पर हैं। रक्षा पर ज्यादा बजट खर्चने वाले शीर्ष देशों में संभवतः भारत को सर्वाधिक चुनौती भरे माहौल में अपनी सीमाओं की रक्षा का दायित्व निभाना पड़ रहा है और पाकिस्तान एवं चीन जैसे परम्परागत दुश्मन देशों से निरन्तर खतरा बना हुआ है। इन हालात और आतंकवाद की भीषण चुनौती के चलते भारतीय सेनाओं को दोहरी भूमिका निभानी पड़ रही है। हमारे सैनिकों पर भी दबाव बढ़ा हुआ है जिस वजह सैनिकों में मानसिक अवसाद बढ़ने की घटनाओं में बढ़ौतरी देखी गई है। कश्मीर घाटी में पीठ पीछे हमला करने वाले आतंकवादियों से निपटने से कहीं ज्यादा खतरा आपके मंुह पर भद्दी-भद्दी गालियां निकालते, पत्थर फैंकते कश्मीरी लोगों से है जहां सैनिकों के हाथों में बंदूकें होते हुए भी उन्हें धैर्य की पराकाष्ठा को लांघकर अपना मानसिक संतुलन बनाए रखना पड़ता है और यह कमाल केवल भारतीय सैनिक ही कर दिखाते हैं। आज भारतवर्ष को भी इसी तरह के ज्यादा से ज्यादा धैर्यवान, ऊर्जावान, सकारात्मक सोच वाले और अनुशासित तरीके से जीवन जीने वाले युवाओं की जरूरत है जो राष्ट्र निर्माण एवं विकास में अपनी सक्रिय भूमिका निभा सकें। केन्द्र सरकार को राष्ट्रीय कैडेट्स कोर,एन.एस.एस. जैसे संगठनों की प्रशिक्षण प्रणाली को और सुधारने तथा मजबूत बनाने के साथ-साथ ज्यादा से ज्यादा युवक-युवतियों के लिए अनिवार्य सैन्य प्रशिक्षण प्रक्रिया की शुरूआत करने की जरूरत भी है। सैन्य प्रशिक्षण द्वारा आए बदलाव से ही हम वास्तविक सैनिक जीवन की कठिनाइयों को समझ सकते हैं और फिर स्वयमेव हम अपने पूर्व सैनिकों और सेवारŸा सैनिकों को सम्मान देना सीख जायेंगे।
अनुज कुमार आचार्य
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